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Friday, September 17, 2010

खो रहा रिश्तों का सौंदर्य

जीवन में लगातार बढ़ते संघर्षों से हमारे रिश्ते सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त हुए हैं। यह विचार और मूल्यों का नहीं बाजार का युग है। इसकी अपनी मांगें हैं जिनमें भावनाओं और संवेदनशीलता की गुंजाइश ही नहीं है। पहले ऐसा होता था कि जिन्हें ऐश्वर्यशाली, सर्वसुविधायुक्त जीवन की चाह रहती थी उन्हें इसका मूल्य चुकाना पड़ता था लेकिन अब इससे भी हजार कदम आगे औसत जीवन स्तर के लिए भी इसी तरही की कीमत चुकाना एक शर्त बनता जा रही है। हममें से अधिकतर लोग इस शर्त को पूरी भी कर रहे हंै। दिन-रात की भागदौड़ के बीच कहीं न कहीं हमारे जीवन का सौंदर्य खो गया है। हमारे रिश्तों के नाजुक फूल कुम्हला रहे हैं। जिंदगी में हर बात के लिए तो जगह बनती जा रही है,बस जिंदगी जीने की जगह शेष नहीं है। ऐसे परिवारों की संख्या में लगातार इजाफाा हुआ है जिनमें पति-पत्नी दोनों ही नौकरीपेशा हैं। दोनों के काम पर जाने और वापस आने का समय भी अलग-अलग है। कहीं-हालात ऐसे हैं कि दोनों की हफ्ते-हफ्ते तक बात नहीं हो पाती। ऐसे दंपत्तियों के बच्चे आधे-अधूरे रिश्तों के साथ बड़े होते हैैं। बच्चे हमेशा ही आकाश से रिश्ते चाहते हैं। उनका सुकोमल मन भावनाओं की स्निग्ध ओस से ही पलता-बढ़ता है। ऐसे दंपत्तियों के बच्चे इस ओस से , इस स्निगधता से वंचित रह जाते हैं। ऐसे लोगों का जीवन अपना स्वाद खोने लगता है, ऊब पैदा होने लगती है। इसका एहसास उन्हें भी होता है पर वे इसे समझने की बजाय, इस भीतरी खालीपन को भरने की बजाय बाहर के उपाय करने लगते हैं। विकल्प हर जगह मौजूद रहता है,बस उसे देखने के लिए सिर्फ नजर की ही नहीं साहस की भी जरूरत होती है। दरबसल विवशताएं उतनी भी नहीं होतीं जितनी हम समझ लेते हैं। विवशताओं की मारक जकड़न की एक वजह यह भी होती है कि हम अपनी बुनियादी जरूरतों की सही -सही शिनाख्त भी नहीं कर पाते। इसीलिए कुछ लोगों को लगने लगता है कि शान-ओ-शौकत भी हमारी जरूरत हैं। यह चिंतन अधिकांश लोगों के जहन में सिरे से गायब होता जा रहा है कि हमारी सारी फितरतें, सारी भागदौड़ किसलिए है? आखिर हमारे कुछ भी संग्रहित करने का मूल उद्देश्य यही तो है कि हम जीवन को आनंदमय बना सकें और उसका लुत्फ अपनों के साथ ले सकें। रिश्ते ही हमारी स्वादेंद्रिय हैं। इन्हीं के मार्फत हम हर लम्हे का, वक्त का मजा ले सकते हैं। जिंदगी के कितने रंग हैं जो आपने देखे हैं पर आपका बच्चे ने नहीं । आपने अपने माता-पिता की ऊंगलियां पकड़कर चलना सीखा होगा पर अपने बच्चे को ऊंगली पकड़ाकर चलाने का वक्त आपके पास नहीं है। आपने अपने दादा-दादी,नाना-नानी के साथ छुट्टियों का ढेर सारा वक्त गुजारा होगा, उनसे कहानियां सुनीं होंगी पर आपका बच्चा तो इन रिश्तों के बारे में खास कुछ नहीं जानता। कहानियां क्या होती हैं यह भी उसे नहीं पता! आपतो हर वक्त अपने मम्मी -पापा से स्कूल की बातें बताते थे, उनके साथ टीवी देखते थे,घूमने जाते थे पर आपके पास है इतना वक्त अपने बच्चों के लिए? शायद नहीं। आपके वाजिब से लगने वाले तर्क होंगे कि ‘‘क्या करें, चाह कर भी समय ही नहीं मिल पाता। अब नौकरी करें या बच्चों की इन बातो पर ध्यान दें’आप सिर्फ इन तर्कों के समर्थन में ही नहीं बल्कि आपने इन्हें अनिवार्य मान लिया है और आपकी नजर में इनका कोई विकल्प नहीं है। लेकिन वाकई क्या ऐसा ही है? सोचिए! घर की बैठक में आप बदलाव करते रहते हंै, कुछ चीजें यहां-वहां करते हैं, फिर जिंदगी में यह बदलाव क्यों नहीं ? अपनी वास्तविक जरूरतों के बारे में सोचिए और अपने रिश्तों को यदि कुछ देना चाहते हैं तो बुनियादी जरूरतों की आसानी से उपलब्धता के अलावा उन्हें वक्त दीजिए। कहते हैं समय ही सोना है। रिश्तों के लिए समय सोना नहीं हीरा है, सबसे कीमती ।

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