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Sunday, November 21, 2010

टाइम की सूची पर जरूरी सवाल

टाइम पत्रिका ने पिछली सदी की सबसे ताकतवर महिलाओं की सूची जारी की है, इसमें सबसे अधिक समय तक किसी देश की प्रधानमंत्री होने का गौरव रखने वाली श्रीमती प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी नौ वें स्थान पर हैं। खास बात यह है कि अमेरिका की सेक्रेटरी आफ स्टेट और पूर्व अमेरिकी राष्टÑपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन को इंदिरा गांधी से तीन क्रम ऊपर रखा गया है, वे छठवें स्थान पर हैं। इसीलिए यह सूची काबिले गौर है और इससे कई सवाल उठते हैं। सबसे पहले सवाल तो यही उठता है कि हिलेरी क्लिंटन को किस आधार पर इंदिरा गांधी से तीन क्रम पहले जगह दी गई? इंदिरा गांधी के विराट व्यक्तित्व, उनकी राजनैतिक कुशाग्रता और वैश्विक स्वीकार्यता के सामने हिलेरी क्लिंटन की जगह कहां है? खुद पत्रिका ने इंदिरा गांधी को इस सूचि में शामिल किए जाने के लिए जिन बातों को आधार बनाया है वे भारत की इस अप्रतिम महिला नेत्री को श्रेष्ठ ही नहीं सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। इंदिरा जब भारत की प्रधानमंत्री बनीं तब इसी टाइम मैगजीन नेअपने कवर पेज पर उनकी तस्वीर छाप कर लिखा था- समस्याग्रस्त भारत की कमान एक महिला के हाथ में। भारत की समस्याएं तब ऐसी नहीं थीं कि उनका समाधान साल दो साल में हो जाता । यह हर तरफ से नाउम्मीदी के अंधेरे में छटपटाते भारत की ऐसी समस्याएं थीं जिनकी जड़ों में गहरी विसंगतियां और अभाव थे। तब जैसा भारत आज है वैसा ख्वाब देख पाना भी करीब-करीब नामुमकिन था, लेकिन इंदिरा गांधी ने इतने विपरीत हालातों में यह ख्वाब न सिर्फ देखा बल्कि उसे साकार करने के लिए एक रोड मैप भी तैयार किया। एक वक्त में जो जुनून आजादी के दीवानों में था, अपने देश को गौरव दिलाने का वही जुनून इंदिरा गांधी में था, उनके साथ जुड़े विवादों और मिथकों के बीच इस बात का आकलन शायद कभी नहीं किया गया। इसी जुनून के कारण वे लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के बीच बिना किसी विदेशी सहायता के पाकिस्तान के इरादों का मुंहतोड़ जवाब दे सकीं और अपनी असाधारण कूटनीतिक कुशलता का परिचय देकर बांग्लादेश का निर्माण भी करा सकीं। पूर्व अमेरिकी राष्टÑपति निक्सन के पीए ने अपनी पुस्तक में इस बात का जिक्र किया है कि निक्सन इंदिरा गांधी से डरते थे, इसलिए वे नहीं चाहते थे कि उन्हें इंदिरा गांधी का सामना करने पड़े। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इंदिरा अपने देश के गौरव के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं करती थीं, कभी भी। अमेरिका जैसे देश के प्रभुत्व को भी उन्होंने कभी उस तरह स्वीकार नहीं किया जैसा इतनी शक्तिशाली अर्थव्यवस्था के बाद भी आज भारत के नेता कर रहे हैं। अमेरिका की ही एक संस्था ने अपने सर्वे में इंदिरा गांधी को दुनिया की एकमात्र ऐसी महिला नेत्री कहा था जिसने नारीत्व की कमियों पर विजय हासिल कर ली थी। इसके अलावा यह रिकार्ड तो आज भी इंदिरा जी के नाम पर ही है कि दुनिया के किसी भी देश की सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री वही हैं। क्या ऐसी कोई उपलब्धि, ऐसी कोई विलक्षणता या ऐसी कोई वैश्विक स्वीकार्यता हिलेरी क्लिंटन की है? जाहिर है नहीं, तो फिर क्या सिर्फ इसीलिए हिलेरी को इस सूची में छठवें स्थान पर जगह दी गई है कि वे आज दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क की विदेश मंत्री हैं? तथ्य बताते हैं कि इस तरह की सूची या सूचियां इसी तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर बनाई जाती हैं। हाल ही में फोर्ब्स ने दुनिया की सबसे ताकतवर महिलाओं की जो सूची जारी की है उसमे ंभी अमेरिकी राष्टÑपति बराक ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा को सबसे पहला स्थान दिया गया है। यह सवाल लाजमी है कि असाधारण चुनौतियों का सामना कर इतिहास रच देने वाली इंदिरा नूयी या फिर विपरीत हालात में अपनी अलग छवि और जगह बनाने वाली सोनिया गांधाी के सामने मिशेल की कोई स्वतंत्र पहचान है? नहीं है, लेकिन इसके बावजूद जो उनके पास है वह किसी के पास नहीं, आखिर वे मिसेज ओबामा हैं। इस तरह की सूचियां अच्छी बात हो सकती हैं। जब इन्हें एक पूरे समय का मूल्यांकन करने की कसौटी माना जा रहा हो, तब यह बहुत जरूरी हो जाता है कि वे इस कदर निष्पक्ष हों कि उन पर गंभीर संदेह की गुंजाइश न रह जाए। टाइम की सूचि से पता चलता है कि उसमें इस प्राथमिक शर्त का सिरे से अभाव है।

Monday, November 15, 2010

नंगो का राज

हाल ही में किंगफिशर का नया कैलेंडर आया है। इसके जारी होने पर उन मॉडल्स का ग्रुप फोटो भी जारी हुआ जिन्होंने अपने शरीर की नुमाइश इसमें की है। इस फोटो में सभी मॉडल्स मुस्करा रही हैं। यह पहली बार नहीं है। हमेशा जब भी कोई मॉडल या फिल्म स्टार नग्न तस्वीरें खिंचवाती है,ऐसी ही मुस्कराती फोटो आती हंै, मैं हमेशा सोचता हूं कि मुस्कराने और नंगेपन का क्या संबंध है? यह सवाल भी परेशान करता है कि ये मॉडल्स किस पर मुस्कराती हैं? कई बार लगता है कि वे उन लोगों पर मुस्कराती हैं जो उनकी नग्नता पर लट्टू होते रहते हैं। कई बार यह शक भी होता है कि वे उन सभी लोगों पर मुस्कराती हैं जो कपड़े पहने -पहने ही पूरी जिंदगी गुजार देते हैं, जिनमें नंगे होने का साहस ही नहीं। ेऐसे साहसिक कामों के लिए ही उनका जन्म होता है,वे एक बार यह साहस करती हैं तो फिर ऐसे ही बल्कि इससे भी ज्यादा साहसिक काम करती चली जाती हैं। एक अनंत सिलसिला बन जाता है उनकी नग्नता और मुस्कराने का। हमारे देश में नंगे कम नहीं हैं। करीब-करीब आधी आबादी के पास तन ढंकने के लिए कपड़े नहीं है लेकिन उन्हें वह कला नहीं आती जो किंगफिशर के कैलेंडर वाली सुंदरियों को आती है। हमारे गरीब इसी बात का रोना रोते रहते हैं कि उनके पास तन ढकने के लिए कपड़े नहीं है। ये सुंदरियां कपड़े होने के बाद भी उन्हें घृणा की दृष्टि से देखती हैं। शायद यही गरीबी और अमीरी की परिभाषा है कि जो चाहकर भी न पहन सके वह गरीब और जो चाहकर ही न पहने वह अमीर! कहते हैं कि नंगे से खुदा भी डरता है? सवाल यह है कि किस तरह के नंगों से खुदा डरता है? जैसे नंगे हमारे गरीब हैं,उनसे खुदा डरता होता तो ये सब भी कब के अमीर हो गए होते। नहीं ..इनसे खुदा नहीं डरता। वह जरूर ऐसे ही नंगे लोगों से डरता होगा जो अकेले में नहीं सबके सामने नंगे होते हैं और नंगे होेकर मुस्कराने की कला भी जानते हैं। इन्हीं से डरता है खुदा, नहीं तो इन्हीं पर इतना मेहरबान क्यों होता? करोड़ों की दौलत इतनी सी बात पर यदि इनके कदम चूम रही है तो यह नंगपन असाधारण होगा ही। पर बात सिर्फ इतनी ही नहीं कि कोई भी कहदे कि हम नंगेहोने तैयार हैं और उसे नंगा होने का चांस दे दिया जाए। इसके लिए बाकायदा टेस्ट होेते हैं। ये टेस्ट शरीर से आत्मा तक की जांच करते हैं कि कहीं भीतर तो कोई कपड़ा या पर्दा वगैरह नहीं है। कड़ी परीक्षा के बाद जब यह तय हो जाता है कि नहीं यह भीतर -बाहर सब तरफ एक सा ही है तभी उसे मौका दिया जाता है। इस तरह के ‘वेल क्वालीफाइड’ नंगों की बड़ी भारी जमात इस देश में है। ये सुंदरियां तो इस वर्ग की नुमांइदगी बस करती हैं ताकि लोगों को इस बात का ध्यान बराबर बना रहे कि इस देश में उन लोगों की संख्या और ताकत बड़े पैमाने पर मौजूद है जिनसे खुदा डरता है। कौन हैं वे? यह सवाल उठना स्वाभाविक है। क्या उनके भी कैलेंडर निकलते हैं? अरे नहीं...नहीं..। यदि उनके भी कैलेंडर निकलने लगे तो जैसा शिवजी की स्तुति में कहा गया है कि सारी धरती को कागज बनाकर वृक्षों के माध्यम से समुद्र रूपी स्याही से लिखा जाए तो भी उनकी महिमा नहीं लिखी जा सकती, वैसी ही बात हो जाएगी। कितना लिखा जाए इन नंगों के बारे में ! हर कहीं, हर तरफ तो यही हैं। बस नाम लीजिए किसी क्षेत्र का हर कहीं वही वही मिलेंगे। नंगो का राज है ऐसे में यदि किंगफिशरी सुंदरियां मुस्करा रही हैं तो आश्चर्य क्या? धीरेंद्र शुक्ल

ऐसे कैसे मिलेगी पंचायतों का ताकत?

उत्तर प्रदेश में त्रि स्तरीय पंचायत चुनावों के तहत पहले स्तर यानि पंचायत सदस्यों और ग्राम प्रधान के स्तर का चुनाव हो चुका है। अब बारी दूसरे और तीसरे स्तर की है। पंचायत चुनावों में जबर्दस्त हिंसा हुई और कई जगहों पर पनर्मतदान भी हुआ। अब ब्लॉक और जिला पंचायत के चुनावों के लिए भी हर तरह की बिसातें बिछ चुकी हैं। ब्लाक और जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव के लिए ग्राम प्रधानों को खरीदने के लिए उन्हें दस तोला सोना या आल्टो कार भी देने का पांसा फेंका जा रहा है। अब यह सब इतनी सहजता से होने लगा है कि आम आदमी को इसमें कुछ भी गलत दिखाई नहीं देता। लेकिन एक बात जो हर किसी को साफ दिखाई देती है पर जान-बूझकर जिसे अनदेखा कर दिया जाता है, वह है इन चुनावों में महिलाओं की स्थिति या सही मायने में उनका ‘दुरुपयोग’। पंचायतें सदियों से विकास और सुलभ न्याय की स्थानीय व्यवस्था के रूप में स्थापित रही हैं। इनके साथ लोगों का जुड़ाव इतना आत्मीय था कि वे एक जमाने में इसके प्रमुख यानि सरपंच या मुखिया को भगवान का रूप मानते थे। प्रेमचंद की कहानी‘पंच परमेश्वर ’ इसी भाव के लोक मान्यता में स्थापित होने की कहानी है। तमाम तरह के परिवर्र्तनों के बावजूद यह व्यवस्था अपने मूल स्वरूप में कायम रही। आजादी के बाद जब सभी क्षेत्रों में लूट मची और जनप्रतिनिधयों की एक बड़ी जमात ने जहां हैं, जैसे हैं , वहीं जितना लूट सको लूट लो, को अपना आदर्श बना लिया, तब पंचायती व्यवस्था में भी विकृतियां आनी शुरू हो गर्इं। इसके बावजूद यह ग्राम्य जनता के बीच संवाद स्थापित करने,छोटे-मोटे झगड़े सुलझाने और उनके सुख-दुख में कहीं न कहीं कोई भूमिका निभाने वाली इकाई बराबर बना रही। जो विकृतियां आ गर्इं थीं वे धीरे-धीरे बढ़ती गर्इं। जाहिर है ये यूं ही नहीं बढ़ रहीं थीं, इन्हें बड़ी कोशिशों से बढ़ाया जा रहा था। जिन्हें इनसे लाभ था वे इनके सहारे बड़ा खेल खेलने की युक्ति बैठा चुके थे। तब महिला सशक्तीकरण की इतनी बातें नहीं थीं, इसलिए पंचायतों में वे ही महिलाएं चुनकर आती थीं जिनका वाकई राजनीति में दखल होता था। भले ही उनकी संख्या कम रही हो लेकिन वे स्थानीय राजनीति में इतनी दखल रखती थीं कि बिना किसी पुरुष की सहायता के अपना काम बड़ी कुशलता से कर सकें। लेकिन इस पंचायत चुनाव मे जहां कहीं भी पंचायत चुनावों में महिलाएं लड़ीं उसका नजारा उनकी हालत को बयां करने के लिए काफी है। इन चुनावों में ऐसी एक भी महिला नहीं थी जिसने अपने चुनाव प्रचार के दौरान सिर्फ अपने नाम का इस्तेमाल किया हो, अनिवार्यत:उसके नाम के साथ उसके पति का नाम भी जुड़ा हुआ था। बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी, इसके दस कदम आगे ये महिलाएं घूंघट में ही प्रचार करती देखीं गर्इं, प्रचार का सारा जिम्मा भी स्वाभाविक रूप से उनके पतियों ने ही संभाल रखा था। बात सिर्फ इसी बार की नहीं हैं जबसे पंचायती राज नए शक्ल में आया है और महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू हुई है,यही हालत है। यह सभी का अनुभव है कि चुनावों के इस नजारे का वास्तविक अर्थ इन महिला प्रत्याशियों के जीतने के बाद सामने आता है। तब यह देखा जा सकता है कि इनके नाम पर न सिर्फ उनका पति, बल्कि पूरा परिवार ही सारा काम-काज संभालता है। यहां इस निर्वाचित महिला की स्थिति कुछ भी नहीं होती, उसके विचार या उसकी सहमति-असहमति यहां कोई मायने नहीं रखतीं, जो कुछ उसके परिजन करना चाहते हैं वह डंके की चोट पर करते हैं। इस सबके बारे में काई ऐसी व्यवस्था भी नहीं है जो महिला के इस तरह इस्तेमाल पर रोक लगा सके। गांवों में तो कोई इतना साहस कर ही नहीं सकता कि यदि किसी मामले में महिला प्रमुख के पति ने अपनी सहमति जता दी हो तो वह यह कहे कि नहीं मुझे मुखिया से मिलना है। हालांकि मिलने से भी होगा तो कुछ नहीं पर अपनी तसल्ली के लिए भी वह ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि जिसके नाम पर उसके परिजनों ने वोट मांगे थे वे उसे ग्राम पंचायत प्रमुख नहीं, सिर्फ एक औरत मानते हैं जो उनकी घर की इज्जत है और उससे कोई दूसरा मर्द नहीं मिल सकता। यह अलग बात है कि इसी‘ इज्जत’ के नाम पर और उसे हजारों लोगों के बीच घुमा-घुमा कर वोट मांगते वक्त उन्हें कोई असहजता या असुविधा महसूस नहीं होती और ‘घर की इज्जत ’ जैसी बात भी दिखाई नहीं देती। यहां कई सवाल एक साथ उठते हंै। पहला यह कि ग्राम पंचायतों में महिलाओं को प्राप्त अधिकारों को इस कदर इस्तेमाल किया जाना क्या सरासर धोखाधड़ी नहीं है? उन मतदाताओं के साथ, जिन्होंने उसे चुना और उस मंशा का यह खुला मजाक नहीं है जो महिला को ‘अबला से सबला’ होते देखना चाहती है। इस खुल्लमखुल्ला धांधली को रोकने समाजशास्त्रियों का ध्यान इस ओर क्यों नहीं जाता?जो कानून है उसे अमल में लाने की सार्र्थक कोशिश क्यों नहीं की जाती? क्या ऐसी कोई व्यवस्था कायम होने की दिशा में छोटी ही सही, शुरुआत नहीं हो सकती कि महिलाओं के लिए आरक्षण का लाभ सिर्फ उन्हीं को मिले? दरअसल यह ऐसा नाजुक और पेचीदा सामाजिक मामला है जिसकी जड़ें हमारे सामाजिक ताने-बाने में मौजूद हैं। अशिक्षा भी इसका एक बड़ा कारण है, और फिर राजनीति तो है ही । लालू प्रसाद यादव को जब चारा घोटाले में जेल हुई तो उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया था। राबड़ी की स्थिति तब अनुभवहीन और नौसिखिया महिला की ही थी लेकिन लालू ने सिर्फ अपने और अपने पिछलग्गुओं के दम पर ऐसा कर दिखाया। जब वे बाहर आए तो उन्होंने भी राबड़ी के नाम पर खुलकर सरकार चलाई और सारा देश देखता रहा। विश्लेषण करते जाएं तो यह लगने लगता है कि महिलाओं की आड़ में राजनीति करने के संस्कार गांव के छोटे खिलाड़ियों ने लालू सरीखे बड़े खिलाड़ियों और उनके शहरी मानस पुत्रों से ही ग्रहण किए हैं। शहरों में महापौर और जिला पंचायत से लेकर सांसदों तक के चुनाव में यही स्थिति देखी जा सकती है। यहां भी महिलाएं सिर्फ मोहरा होती हैं, चाल तो उनके पति ही चलते हंै। इस स्थिति में यह शक भी निराधार नहीं लगता कि यदि राजनीति में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण का विधेयक पास हो भी जाता है तो उसका यही हश्र हो सकता है। कई बातें हैं जो आपस में गुंथी हुई हैं, लेकिन जरूरी है कि उनका कोई सिरा पकड़कर इन्हें सुलझाने की दिशा में कोई ऐसी कोशिश की जाए जिसके परिणाम भी दिखाई देने लगें। इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ग्राम ंपंचायत हो या शहरों में पार्षद का चुनाव लड़ती महिलाएं, सभी के लिए यह शिक्षा को लेकर भले ही बंदिशें न हों पर यह जरूरी कर दिया जाए कि वही महिलाएं इन चुनावों में प्रत्याशी हो सकेंगी जिन्हें सामाजिक जीवन में सक्रियता का अनुभव हो। प्रायमरी कक्षाओं में पढ़ाने के लिए आवेदन देने वाली महिलाओं से भी यह अपेक्षा की जाती है कि उन्हें पढ़ाने का अनुभव होना चाहिए, तो फिर इस मामले में ऐसी किसी बात को व्यवहार में लाने की बात करना और इस दिशा में पहल करना भी अव्यावहारिक नहीं माना जा सकता। यह भी तय है कि ऐसी किसी भी कोशिश का शुरू में विरोध भी जमकर होगा और बाद में इसका ‘तोड़’ निकालने की कोशिशें की जाएंगी। लेकिन इन सबके बाद भी ऐसी कोशिशें नई पहल हो सकती हैं और संभव है कि वे सार्थक भी हों।

अब तो आदत बन गई हैआसमान छूना

भारत युवाओं का है, इस बात का अर्थ सिर्फ यह नहीं है कि यहां उम्र के लिहाज से सबसे ज्यादा युवा हैं, इस बात का असल मायने यह है कि यह संभावनाओं का भारत है। सारी दुनिया में प्राच्य विद्याओं के लिए तो हमेशा ही भारत को जगतगुरु कहा जाता रहा है लेकिन आज के संदर्भों और चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में हम अपनी कोई पहचान नहीं बना पाए थे। पिछले एक दशक में हमारे युवाओं ने यह तस्वीर बदल दी है। अब रचने का ऐसा कोई भी क्षेत्र शेष नहीं है जहां भारत ने अपनी छाप न बनाई हो। किसी देश के पास परमाणु शक्ति और सैन्य ताकत कितनी है यह उसके ताकतवर होने का पैमाना आज तो कतई नहीं है। आज विज्ञान,खेल,तकनीक,संचार माध्यम, सिनेमा,संगीत,साहित्य और ऐसी ही अन्य विधाओं में नए क्षितिज का स्पर्श करने की क्षमता और दक्षता के आधार पर ही किसी देश की समग्र प्रगति की माप तय होती है। इन सभी क्षेत्रों में भारत ने इतना जबर्दस्त प्रदर्शन किया है कि दुनिया भौंचक है। ओलंपिक में अभिनव बिंद्रा के स्वर्ण और सुशील कुमार तथा विजयेंद्र सिंह के कांस्य पदक जीतने से इन खेलों में चला आ रहा शून्य भारत ने खत्म कर दिया है । सायना नेहवाल ने करीब दो दर्जन अंतराष्टÑीय स्पर्धाओं के खिताब अपने नाम कर विश्व स्तर पर दूसरे नंबर की खिलाड़ी होने का गौरव पाया है। विज्ञान में भारत का आईटी पर प्रभुत्व जग जाहिर है, बेशक वे अमेरिका में रह रहे हैं लेकिन युवा वैज्ञानिक रामकृष्णनन ने नोबल पुरस्कार जीतकर भारतीय प्रतिभाओं की क्षमताओं को ही वैश्विक रूप से उजगर किया है, उनकी ग्रेजुएट स्तर तक की पढ़ाई भारत में ही हुई है। संगीतकार एआर रहमान ने आस्कर पुरस्कार जीत कर संगीत के क्षेत्र में भारतीय युवाओं की सशक्त मौजूदगी दर्ज कराई है। अमित त्रिवेदी अभी 31साल के हैं पर उनमें वे संभावनाएं दिखाई दे रही हैं कि दुनिया का कोई भी पुरस्कार उनके हाथों की जद में आ सकता है। छह फिल्मों में कर्णप्रिय और लोकप्रिय संगीत देकर वे सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का राष्टÑीय पुरस्कार जीत चुके हैं। नागेश कुकनूर और नीरज पांडे का नाम इस दौर के सबसे ज्यादा प्रयोगधर्मी फिल्म निर्देशकों में उल्लेखनीय है। ये युवा फिल्मकार सामाजिक सरोकारों वाली फिल्में बनाकर इस माध्यम की ताकत का इस्तेमाल आम आदमी के हालात बेहतर बनाने की दिशा में कर रहे हैं। सिनेमा में तेजी से उभरता क्षेत्र है एनीमेशन का। भारत की साख इसमें इतनी है कि सिर्फ बेंगलुरू के ही दस ऐसे एनीमेशन स्टूडियो हैं जो कई हालीवुड फिल्मों के लिए आउटसोर्सिंग का काम कर रहे हैं, जाहिर है उनका काम विश्वस्तर का है और उसे स्पिलबर्ग जैसे निर्देशकों द्वारा भी सराहा जा रहा है। भारत में इलैक्ट्रनिक मीडिया यानी न्यूज चैनल दूसरे देशों की अपेक्षा ज्यादा युवा हैं वैचारिक और सामाजिक सरोकारों की दृष्टि से भले ही उन्हें परिपक्व होने में और वक्त लगे पर उनकी व्यापकता और प्रभाव दिनों दिन बढ़ रहा है। इन चैनल्स के एंकर से लेकर कर्ता-धर्ता तक सब युवा ही हैं। यहां पर एक नाम बेहद उल्लेखनीय है, पी सांईनाथ का। उन्होंने प्रिंट मीडिया की प्रामाणिकता,सामाजिक सोद्देश्यता और प्रभाव बनाए रखने के लिए जो कोशिशें की हैं उन्हें वैश्विक स्तर पर सराहा गया है। 2007 मेंं उन्हें प्रदान किया गया रेमन मैग्सेसे पुरस्कार दरअसल उनके इन्हीं कामों को वैश्विक समुदाय की स्वीकृति थी । टाइम्स ग्रुप की फैलोशिप पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी-‘‘एवरी बडी लव्स ए गुड ड्राउट ’’ यह पुस्तक इस बात पर केंद्रित थी कि अकाल किन-किन इलाकों में सबसे ज्यादा पड़ता है और सीधे तौर पर इससे फायदा किन -किन लोगों को होता है। इस पुस्तक के दर्जनों विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुए और आज यह दुनिया के करीब तीस देशों के विश्वविद्यालयों में किसी न किसी रूप में पढ़ाई जाती है। साहित्य के क्षेत्र में भारतीय युवाओं का परचम शान से लहरा रहा है। झुंपा लाहिड़ी ने 1999 में अपनी पुस्तक ‘इंटरप्रेनर आफ मालदीव के’ जरिए साहित्य में कदम रखा और इसके ठीक एक साल बाद ही सन् 2000 में उनके उपन्यास ‘द नेमसेक ’ को साहित्य के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक ‘पुलित्जर पुरस्कार’ प्रदान किया गया। नो बडीज बिजनेस,हेल-हेवन, वंस इन ए लाइफ टाइम और इयर्स एंड उनकी लघुकथाओं के संग्रह हैं। कला एवं मानवीय सरोकारों के लिए अमेरिकी राष्टÑपति बराक ओबामा द्वारा गठित समिति में भी झुंपा को सदस्य मनोनीत किया गया है। इसी कड़ी में एक और नाम है रॉबिन शर्मा का। उनकी पुस्तक‘द मोंक हू सोल्ड हिज फरारी’ ने सारी दुनिया के व्यवसाय प्रबंधन के क्षेत्र में तहलका मचा दिया था। ‘द लीडर हू हेव नो टाइटल: ए माडर्न फेबल आन रियल सक्सेस इन बिजनेस एंड लाइफ’ उनकी गे्रटनेस गाइड सीरीज की एक और खास किताब है। उनके काम का दुनिया के 60 देशों की 70 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। चेतन भगत फाइव पॉइंट समवन, ए नाइट @कॉल सेंटर और थ्री मिस्टेक्स आफ माइ लाइफ जैसी पुस्तकों के जरिए दुनिया के युवाओं के बीच लोकप्रिय लेखकों की कतार में सबसे आगे हैं। राजनीति में राहुल गांधी युवा भारत के सबसे पसंदीदा चेहरे हैं। वे धीरे-धीरे अपनी पसंद के युवाओं का चयन कर राजनीति में शुचिता और संवेदनाओं की स्थापना की कोशिश कर रहे हैं और उनके पसंदीदा युवा हैं सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि आदि। धर्म के क्षेत्र में बाबा रामदेव का नाम सारी दुनिया में सम्मान से लिया जा रहा है। वे योग के शिखर पुरुष के रुप में अपनी पहचान बना चुके हैं। यह पहली बार है जब भारत स्वत:स्फूर्त होकर इस तरह आगे बढ़ रहा है। उसकी युवा ऊर्जा सभी ऊंचाइयों को अपने कदमों से नाप रही है। उनमें असीम संभावनाएं हैं, आसमान छूना अब उनकी हसरत नहीं आदत बन चुकी है। - धीरेंद्र