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Tuesday, December 21, 2010

शहर से जुदाई

किसी शहर में रहना सिर्फ रहना नहीं होता, वहां की हर गली,रस्तों,चेहरों और दरख्तों से भी एक तरह का रिश्ता कायम हो जाता है। पिछले पांच माह से आगरा में था। वह आगरा जो हिंदुस्तान के महानतम शासक अकबर की राजधानी था, वह आगरा जिसे सारी दुनिया सिटी आफ ताज के नाम से जानती है और वह आगरा जिसकी माटी की गमक नजीर अकबराबादी की रचनाओं में मौजूद है। इस आगरा की इन खूबसूरत शक्लों के अलावा अब और भी बहुत से चेहरे हो गए हैं, जो इसकी नाजुक तासीर से मेल नहीं खाते। यह शायद मिस्त्र के बाद (हालांकि मिस्त्र देश है)दुनिया का एकमात्र शहर है जहां मुर्दे जिंदा लोगों को पाल रहे हैं। यानि यहां का पूरा पर्यटन उद्योग मकबरों पर निर्भर है। ताजमहल मकबरा ही तो है। फिर सिकंदरा स्थित अकबर महान का मकबरा,एतामाउद्दौला का मकबरा,मरियम का मकबरा...। यह बात शायद इस बात की गवाह है कि रिश्ते जिंदा रहते हैं। जिन्होंने इन मकबरों को बनाया उनका कोई बड़ा फलसफा रहा हो, यह जरूरी नहीं लेकिन उनकी व्याख्या उन्हें बड़ा बनाती है। अकबर का मकबरा मुझे खास तौर पर आकर्षित करता रहा है। आगरा में गुजारे इन पांच माहों के दौरान दर्जनों बार ऐसा हुआ है कि मैं रात को इसके विशाल परिसर में घंटों बैठा हूं। जब अकबर ने इस जगह का चुनाव किया तब यह जगह मुख्य शहर से इतनी दूर थी कि बाद दिनों में जहांगीर यहां शिकार करने आते थे। तबकी इतनी निर्जन,इतनी शांत और इतने घने जंगल वाली जगह में अब इतना शोर इतना सतहीपन और फूहड़पन भी है कि विस्मय मिश्रित दुख होता है कि इस देश में करीब आधी सदी तक राज करने वाले इस शासक को अब चैन की दो घड़ी भी मयस्सर नहीं हैंं। अकबर के मकबरे में मुझे फलसफा दिखाई देता है। सबसे पहले उसके विशाल और आकर्षक दरवाजे के ठीक बाहर बना छोटा सा दरवाजा। क्यों बनवाया यह दरवाजा? शायद इसलिए कि बादशाह,बादशाह ही होता है! कुछ लोग होते हैं जिनका मौत कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती। अकबर भी ऐसे ही शासक थे जिनकी कीर्ति के सामने मौत की ताकत अदनी मालूम पड़ती है। तो यह छोटा दरवाजा शायद इसलिए था कि जो भी यहां आए अदब से आए, सिर झुका कर आए। इसलिए विशाल बड़े दरवाजे के बाहर यह छोटा दरवाजा है। लेकिन इसकी एक और खासियत है जिस पर शायद बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया गया। वह है मुख्य प्रवेश द्वार के बाहर बने इस छोटे दरवाजे तक जाने वाली सीढ़ियां। ये दाएं ,बाएं और सामने से जाती हैं। इनका संबंध शायद अकबर के उस महान विचार से है कि ईश्वर एक है और उसे किसी भी रास्ते से पाया जा सकता है। हो सकता है आगरा में ये मेरी आखिरी रात हो। निदा फाजली ने कहा है-अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं, रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं। ये हवा आजीविका की हवा है, जिसमें हसरतें तिनके की तरह उड़ जाती हैं। ऐसा न होता तो जिस शहर में जिंदगी के सबसे खूबसूरत,दिलकश दिन गुजारे , उस मेहबूब शहर जबलपुर से दूर न होना पड़ता। पिछले साल इन्हीं दिनों भोपाल में था और वहां की ठंड पर एक पोस्ट लिखी थी, अगले साल कहां होंगे, कौन जानता है? लेकिन आगरा से जाना और जाने की बात सोचने पर भी एक टीस गहरा रही है। आभारी हूं इस शहर का, जाने अनजाने इसे कभी भला-बुरा कहा हो तो इसके लिए माफी मांगता हूं। अलविदा आगरा...

Wednesday, December 1, 2010

मोंटेक ने खोलीं नई राहें

पिछले दिनों दो बड़े प्रेरक और गदगद कर देने वाले बयान आए। आप मोंटेक सिंह अहलूवालिया को तो जानते ही हैं, उन्हीं ने बयान दिया, कहा कि हाल ही में जो रियल एस्टेट में घोटाला हुआ वह बड़ी छोटी चीज है, कोई बड़ा घोटाला नहीं है। मुझे सुनकर पहले बड़ी शर्म आई अपने अल्पज्ञान पर। धिक्कार है, मैने सोचा। कितना पिछड़ापन है, कहां खड़ा हूं मैं? मैं तो सोच रहा था कि यह बहुत भारी घोटाला है। करीब एक लाख करोड़ यदि ईमानदारी से नहीं बेईमानी से भी गरीबों पर खर्च किए जाएं तो उनकी हालत बदल सकती है। लेकिन अहलूवालिया ने मेरा दिमाग हिला दिया है। अब लग रहा है कि क्या औकात है एक लाख करोड़ की, कुछ भी तो नहीं। मुझे लगा कि अहलूवालिया देश के कथित महाघोटालेबाजों को ललकार रहे हैं कि चुल्लू भर पानी में डूब मरो! अरे अपनी हैसियत पहचानो । कई छोटे -मोटे घोटालेबाज, घूसखोर जो अपने आप को बड़ा तीस मार खां समझते थे, अहलूवालिया के बयान के बाद मुंह छुपाए घूम रहे हैं और कई लोग जो कई दिनों से अपनी पिछड़ी सोच के कारण छोटा-मोटा भ्रष्टाचार करने की जुगत बनाकर भी कर नहीं पा रहे थे, उन्हें प्रेरणा मिली है कि यदि कुछ करना है तो बड़ा करो। यहां मुझे एक पुस्तक का नाम याद आ रहा है-बड़ी सोच का बड़ा जादू। जब बड़ा सोचेंगे तभी बड़ा करेंगे। कलमाड़ी और आदर्श सोसायटी वालों ने अब एक नया मुहावरा दिया है कि जो कोई न सोच सके वह करो। इसी तर्ज पर एक ऐसी पुस्तक की जरूरत तत्काल है जिसका शीर्षक कुछ इस तरह हो- बड़े घपले का बड़ा जादू। इसके लेखक यदि कलमाड़ी हों तो यह बेस्ट सेलर बुक हो सकती है। वे न भी हों तो किसी मैनेजमेंट गुरु को इस तरफ ध्यान देना चाहिए, ऐसा मेरा प्रस्ताव है। मोंटेक सिंह का बयान ऐसा ही है जो बंजर जमीनों में यानि जिनमें घोटाले करने की क्षमता नहीं है,उन्हें भी उकसा सकता है,उकसा रहा है। सही मायने में मोंटेक सिंह ने देश के घपलेबाजों और घपलेबाज बनने की महत्वाकांक्षा पाले बैठे लोगों को एक चुनौती दी है। गुजरे जमाने में डाकू गांव वालों को चुनौती देते थे कि हम तुम्हें लूटने आएंगे, बचा सको तो बचा लो खुद को। अब डाकू चले गए, उनकी दबंगई चली गई, अब उनकी जगह नेता आ गए, और उनकी अपनी दबंगई भी। सही मायनों में मोंटेक के बयान में भी ऐसी ही दबंगई है कि यदि हिम्मत है तो बड़े घोटाले कर के दिखाओ। आज नेताओं की इसी तरह की दबंगई से कोई नहीं जीत सकता । जनता कहेगी कि इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई, इतने सारे लोग मर गए और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है,नैतिकता के आधार पर आपको इस्तीफा दे देना चाहिए, वे तत्काल कहेंगे कि यह गलत है कि यह बहुत बड़ी दुर्घटना है। इससे पहले भी बड़ी-बड़ी दुर्घटनाएं हुई हैं, उनमें इस दुर्घटना से ज्यादा लोग मारे गए थे। उस समय जो मंत्री थे उनने भी इस्तीफा नहीं दिया था,उनने राजनीति की नैतिकता का पालन किया था, हम भी उन्हीं की नैतिकता का पालन कर रहे हैं। हम भी इस्तीफा नहीं देंगे। जनता कह रही है कि इतने बड़े-बड़े घोटाले डंके की चोट पर किए जा रहे हैं, सरकार कुछ करती नहीं ? मंत्री कह रहा है कहां हुआ घोटाला? अरे ये भी कोई घोटाला है? वह आंकड़े बता रहा है कि कब कितना बड़ा घोटाला कहां हुआ था। देश में उसे बड़े आंकड़े नहीं मिल रहे तो वह दुनिया भर के आंकड़े बता रहा है। घोटालों पर अदभुत है उसका ज्ञान। इन्हीं के सहारे तो वह सारे खेल करता है। वह मानने राजी नहीं है कि जो कुछ अभी तक हो रहा है, हुआ है वह बहुत गलत है। वह कह रहा है कि यह राजनीति है। हमें और सरकार को बदनाम की साजिश है यह। यह साजिश कौन कर रहा है। वह कहता है विपक्ष। लेकिन घोटाले हुए हैं तभी तो विपक्ष कह रहा है। इसमें राजनीति कहां? वह नहीं मानता। मान लेगा तो नेता नहीं रह जाएगा। हमारे जैसा हो जाएगा जो हर बात को मानने के लिए ही तैयार बैठा रहता है। ुबहरहाल हम खुश हैं अहलूवालिया के बयान से । इससे देश के युवाओं के सामने नई राहें खुल गई हैं। उन्हें चाहिए कि वे मोंटेक सिंह की कसौटी पर खरे उतरें और जहां हैं, जैसे हैं वहीं से ऐसे-ऐसे घोटाले करें कि मोंटेक सिंह भी मान जाएं कि हां यह हुआ बड़ा घोटाला। लेकिन यह भी एक मजबूरी है कि इसके लिए भी बड़ी भारी योग्यता चाहिए। सरकारी आदमी ही ऐसे पराक्रम कर सकता है। ऐसे और इससे हजार गुना ज्यादा पराक्रम करने की सामर्थ्य होने के बावजूद बेरोजगारों को अहलूवालिया भी चांस नहीं देंगे। दूसरा बयान कांगे्रस का है, राष्टÑमंडल खेलों में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस का कहना है कि जेपीसी की मांग कर विपक्ष राजनीति कर रहा है। मै भी इससे पूरी तरह सहमत हूं। घोटालों का खेल कोई ऐसी चीज नहीं हैं जो जबान चला देने बस से हो जाए इसके लिए बड़े खेल करने पडते हैं, सब को साधना पड़ता है, और सबसे बड़ी बात यह कि इसे खेलने के लिए साहस नहीं दुस्साहस चाहिए, जो हर किसी के बस की बात नहीं है। कांग्रेस के इस बयान से यह स्पष्ट नहीं है कि वह राजनीति को किस रूप में ले रही है। राजनीति अपने आप में बहुत बड़ी भूल भुलैया है। बहुत बड़ा रहस्य है। यह अपने आप में कर्म भी है और फल भी। यदि आज कलमाड़ी ने 75 हजार करोड़ का घोटाला सिर्फ एक ही खेल में कर दिखाया है तो यह राजनीति की वजह से ही तो संभव हो पाया। यदि वे राजनीति में न होते तो मंत्री भी नहीं होते या शायद कुछ भी न होते, या होते तो चाहे जो होते पर इतना बड़ा काम करने लायक तो नहीं ही होते कि पूरा देश रह -रह कर कलमाड़ी-कलमाड़ी करता रहता। जब राजनीति इतनी ताकतवर, इतनी रक्षक है तो विपक्ष राजनीति कर रहा है, इसका क्या मतलब? क्या कांगे्रस यह कहना चाहती है कि विपक्ष भी कोई बड़ा घोटाला कर रही है? वैसे यदि वह यह भी कह रही है तो उसकी बात में दम है। क्योंकि किसीके बने-बनाए खेल को बिगाड़ना भी तो अपने आपमें बड़ा घोटाला ही है, फिलहाल यह घोटाला विपक्ष कर ही रहा है।