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Tuesday, December 21, 2010

शहर से जुदाई

किसी शहर में रहना सिर्फ रहना नहीं होता, वहां की हर गली,रस्तों,चेहरों और दरख्तों से भी एक तरह का रिश्ता कायम हो जाता है। पिछले पांच माह से आगरा में था। वह आगरा जो हिंदुस्तान के महानतम शासक अकबर की राजधानी था, वह आगरा जिसे सारी दुनिया सिटी आफ ताज के नाम से जानती है और वह आगरा जिसकी माटी की गमक नजीर अकबराबादी की रचनाओं में मौजूद है। इस आगरा की इन खूबसूरत शक्लों के अलावा अब और भी बहुत से चेहरे हो गए हैं, जो इसकी नाजुक तासीर से मेल नहीं खाते। यह शायद मिस्त्र के बाद (हालांकि मिस्त्र देश है)दुनिया का एकमात्र शहर है जहां मुर्दे जिंदा लोगों को पाल रहे हैं। यानि यहां का पूरा पर्यटन उद्योग मकबरों पर निर्भर है। ताजमहल मकबरा ही तो है। फिर सिकंदरा स्थित अकबर महान का मकबरा,एतामाउद्दौला का मकबरा,मरियम का मकबरा...। यह बात शायद इस बात की गवाह है कि रिश्ते जिंदा रहते हैं। जिन्होंने इन मकबरों को बनाया उनका कोई बड़ा फलसफा रहा हो, यह जरूरी नहीं लेकिन उनकी व्याख्या उन्हें बड़ा बनाती है। अकबर का मकबरा मुझे खास तौर पर आकर्षित करता रहा है। आगरा में गुजारे इन पांच माहों के दौरान दर्जनों बार ऐसा हुआ है कि मैं रात को इसके विशाल परिसर में घंटों बैठा हूं। जब अकबर ने इस जगह का चुनाव किया तब यह जगह मुख्य शहर से इतनी दूर थी कि बाद दिनों में जहांगीर यहां शिकार करने आते थे। तबकी इतनी निर्जन,इतनी शांत और इतने घने जंगल वाली जगह में अब इतना शोर इतना सतहीपन और फूहड़पन भी है कि विस्मय मिश्रित दुख होता है कि इस देश में करीब आधी सदी तक राज करने वाले इस शासक को अब चैन की दो घड़ी भी मयस्सर नहीं हैंं। अकबर के मकबरे में मुझे फलसफा दिखाई देता है। सबसे पहले उसके विशाल और आकर्षक दरवाजे के ठीक बाहर बना छोटा सा दरवाजा। क्यों बनवाया यह दरवाजा? शायद इसलिए कि बादशाह,बादशाह ही होता है! कुछ लोग होते हैं जिनका मौत कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती। अकबर भी ऐसे ही शासक थे जिनकी कीर्ति के सामने मौत की ताकत अदनी मालूम पड़ती है। तो यह छोटा दरवाजा शायद इसलिए था कि जो भी यहां आए अदब से आए, सिर झुका कर आए। इसलिए विशाल बड़े दरवाजे के बाहर यह छोटा दरवाजा है। लेकिन इसकी एक और खासियत है जिस पर शायद बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया गया। वह है मुख्य प्रवेश द्वार के बाहर बने इस छोटे दरवाजे तक जाने वाली सीढ़ियां। ये दाएं ,बाएं और सामने से जाती हैं। इनका संबंध शायद अकबर के उस महान विचार से है कि ईश्वर एक है और उसे किसी भी रास्ते से पाया जा सकता है। हो सकता है आगरा में ये मेरी आखिरी रात हो। निदा फाजली ने कहा है-अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं, रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं। ये हवा आजीविका की हवा है, जिसमें हसरतें तिनके की तरह उड़ जाती हैं। ऐसा न होता तो जिस शहर में जिंदगी के सबसे खूबसूरत,दिलकश दिन गुजारे , उस मेहबूब शहर जबलपुर से दूर न होना पड़ता। पिछले साल इन्हीं दिनों भोपाल में था और वहां की ठंड पर एक पोस्ट लिखी थी, अगले साल कहां होंगे, कौन जानता है? लेकिन आगरा से जाना और जाने की बात सोचने पर भी एक टीस गहरा रही है। आभारी हूं इस शहर का, जाने अनजाने इसे कभी भला-बुरा कहा हो तो इसके लिए माफी मांगता हूं। अलविदा आगरा...

Wednesday, December 1, 2010

मोंटेक ने खोलीं नई राहें

पिछले दिनों दो बड़े प्रेरक और गदगद कर देने वाले बयान आए। आप मोंटेक सिंह अहलूवालिया को तो जानते ही हैं, उन्हीं ने बयान दिया, कहा कि हाल ही में जो रियल एस्टेट में घोटाला हुआ वह बड़ी छोटी चीज है, कोई बड़ा घोटाला नहीं है। मुझे सुनकर पहले बड़ी शर्म आई अपने अल्पज्ञान पर। धिक्कार है, मैने सोचा। कितना पिछड़ापन है, कहां खड़ा हूं मैं? मैं तो सोच रहा था कि यह बहुत भारी घोटाला है। करीब एक लाख करोड़ यदि ईमानदारी से नहीं बेईमानी से भी गरीबों पर खर्च किए जाएं तो उनकी हालत बदल सकती है। लेकिन अहलूवालिया ने मेरा दिमाग हिला दिया है। अब लग रहा है कि क्या औकात है एक लाख करोड़ की, कुछ भी तो नहीं। मुझे लगा कि अहलूवालिया देश के कथित महाघोटालेबाजों को ललकार रहे हैं कि चुल्लू भर पानी में डूब मरो! अरे अपनी हैसियत पहचानो । कई छोटे -मोटे घोटालेबाज, घूसखोर जो अपने आप को बड़ा तीस मार खां समझते थे, अहलूवालिया के बयान के बाद मुंह छुपाए घूम रहे हैं और कई लोग जो कई दिनों से अपनी पिछड़ी सोच के कारण छोटा-मोटा भ्रष्टाचार करने की जुगत बनाकर भी कर नहीं पा रहे थे, उन्हें प्रेरणा मिली है कि यदि कुछ करना है तो बड़ा करो। यहां मुझे एक पुस्तक का नाम याद आ रहा है-बड़ी सोच का बड़ा जादू। जब बड़ा सोचेंगे तभी बड़ा करेंगे। कलमाड़ी और आदर्श सोसायटी वालों ने अब एक नया मुहावरा दिया है कि जो कोई न सोच सके वह करो। इसी तर्ज पर एक ऐसी पुस्तक की जरूरत तत्काल है जिसका शीर्षक कुछ इस तरह हो- बड़े घपले का बड़ा जादू। इसके लेखक यदि कलमाड़ी हों तो यह बेस्ट सेलर बुक हो सकती है। वे न भी हों तो किसी मैनेजमेंट गुरु को इस तरफ ध्यान देना चाहिए, ऐसा मेरा प्रस्ताव है। मोंटेक सिंह का बयान ऐसा ही है जो बंजर जमीनों में यानि जिनमें घोटाले करने की क्षमता नहीं है,उन्हें भी उकसा सकता है,उकसा रहा है। सही मायने में मोंटेक सिंह ने देश के घपलेबाजों और घपलेबाज बनने की महत्वाकांक्षा पाले बैठे लोगों को एक चुनौती दी है। गुजरे जमाने में डाकू गांव वालों को चुनौती देते थे कि हम तुम्हें लूटने आएंगे, बचा सको तो बचा लो खुद को। अब डाकू चले गए, उनकी दबंगई चली गई, अब उनकी जगह नेता आ गए, और उनकी अपनी दबंगई भी। सही मायनों में मोंटेक के बयान में भी ऐसी ही दबंगई है कि यदि हिम्मत है तो बड़े घोटाले कर के दिखाओ। आज नेताओं की इसी तरह की दबंगई से कोई नहीं जीत सकता । जनता कहेगी कि इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई, इतने सारे लोग मर गए और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है,नैतिकता के आधार पर आपको इस्तीफा दे देना चाहिए, वे तत्काल कहेंगे कि यह गलत है कि यह बहुत बड़ी दुर्घटना है। इससे पहले भी बड़ी-बड़ी दुर्घटनाएं हुई हैं, उनमें इस दुर्घटना से ज्यादा लोग मारे गए थे। उस समय जो मंत्री थे उनने भी इस्तीफा नहीं दिया था,उनने राजनीति की नैतिकता का पालन किया था, हम भी उन्हीं की नैतिकता का पालन कर रहे हैं। हम भी इस्तीफा नहीं देंगे। जनता कह रही है कि इतने बड़े-बड़े घोटाले डंके की चोट पर किए जा रहे हैं, सरकार कुछ करती नहीं ? मंत्री कह रहा है कहां हुआ घोटाला? अरे ये भी कोई घोटाला है? वह आंकड़े बता रहा है कि कब कितना बड़ा घोटाला कहां हुआ था। देश में उसे बड़े आंकड़े नहीं मिल रहे तो वह दुनिया भर के आंकड़े बता रहा है। घोटालों पर अदभुत है उसका ज्ञान। इन्हीं के सहारे तो वह सारे खेल करता है। वह मानने राजी नहीं है कि जो कुछ अभी तक हो रहा है, हुआ है वह बहुत गलत है। वह कह रहा है कि यह राजनीति है। हमें और सरकार को बदनाम की साजिश है यह। यह साजिश कौन कर रहा है। वह कहता है विपक्ष। लेकिन घोटाले हुए हैं तभी तो विपक्ष कह रहा है। इसमें राजनीति कहां? वह नहीं मानता। मान लेगा तो नेता नहीं रह जाएगा। हमारे जैसा हो जाएगा जो हर बात को मानने के लिए ही तैयार बैठा रहता है। ुबहरहाल हम खुश हैं अहलूवालिया के बयान से । इससे देश के युवाओं के सामने नई राहें खुल गई हैं। उन्हें चाहिए कि वे मोंटेक सिंह की कसौटी पर खरे उतरें और जहां हैं, जैसे हैं वहीं से ऐसे-ऐसे घोटाले करें कि मोंटेक सिंह भी मान जाएं कि हां यह हुआ बड़ा घोटाला। लेकिन यह भी एक मजबूरी है कि इसके लिए भी बड़ी भारी योग्यता चाहिए। सरकारी आदमी ही ऐसे पराक्रम कर सकता है। ऐसे और इससे हजार गुना ज्यादा पराक्रम करने की सामर्थ्य होने के बावजूद बेरोजगारों को अहलूवालिया भी चांस नहीं देंगे। दूसरा बयान कांगे्रस का है, राष्टÑमंडल खेलों में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस का कहना है कि जेपीसी की मांग कर विपक्ष राजनीति कर रहा है। मै भी इससे पूरी तरह सहमत हूं। घोटालों का खेल कोई ऐसी चीज नहीं हैं जो जबान चला देने बस से हो जाए इसके लिए बड़े खेल करने पडते हैं, सब को साधना पड़ता है, और सबसे बड़ी बात यह कि इसे खेलने के लिए साहस नहीं दुस्साहस चाहिए, जो हर किसी के बस की बात नहीं है। कांग्रेस के इस बयान से यह स्पष्ट नहीं है कि वह राजनीति को किस रूप में ले रही है। राजनीति अपने आप में बहुत बड़ी भूल भुलैया है। बहुत बड़ा रहस्य है। यह अपने आप में कर्म भी है और फल भी। यदि आज कलमाड़ी ने 75 हजार करोड़ का घोटाला सिर्फ एक ही खेल में कर दिखाया है तो यह राजनीति की वजह से ही तो संभव हो पाया। यदि वे राजनीति में न होते तो मंत्री भी नहीं होते या शायद कुछ भी न होते, या होते तो चाहे जो होते पर इतना बड़ा काम करने लायक तो नहीं ही होते कि पूरा देश रह -रह कर कलमाड़ी-कलमाड़ी करता रहता। जब राजनीति इतनी ताकतवर, इतनी रक्षक है तो विपक्ष राजनीति कर रहा है, इसका क्या मतलब? क्या कांगे्रस यह कहना चाहती है कि विपक्ष भी कोई बड़ा घोटाला कर रही है? वैसे यदि वह यह भी कह रही है तो उसकी बात में दम है। क्योंकि किसीके बने-बनाए खेल को बिगाड़ना भी तो अपने आपमें बड़ा घोटाला ही है, फिलहाल यह घोटाला विपक्ष कर ही रहा है।

Sunday, November 21, 2010

टाइम की सूची पर जरूरी सवाल

टाइम पत्रिका ने पिछली सदी की सबसे ताकतवर महिलाओं की सूची जारी की है, इसमें सबसे अधिक समय तक किसी देश की प्रधानमंत्री होने का गौरव रखने वाली श्रीमती प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी नौ वें स्थान पर हैं। खास बात यह है कि अमेरिका की सेक्रेटरी आफ स्टेट और पूर्व अमेरिकी राष्टÑपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन को इंदिरा गांधी से तीन क्रम ऊपर रखा गया है, वे छठवें स्थान पर हैं। इसीलिए यह सूची काबिले गौर है और इससे कई सवाल उठते हैं। सबसे पहले सवाल तो यही उठता है कि हिलेरी क्लिंटन को किस आधार पर इंदिरा गांधी से तीन क्रम पहले जगह दी गई? इंदिरा गांधी के विराट व्यक्तित्व, उनकी राजनैतिक कुशाग्रता और वैश्विक स्वीकार्यता के सामने हिलेरी क्लिंटन की जगह कहां है? खुद पत्रिका ने इंदिरा गांधी को इस सूचि में शामिल किए जाने के लिए जिन बातों को आधार बनाया है वे भारत की इस अप्रतिम महिला नेत्री को श्रेष्ठ ही नहीं सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। इंदिरा जब भारत की प्रधानमंत्री बनीं तब इसी टाइम मैगजीन नेअपने कवर पेज पर उनकी तस्वीर छाप कर लिखा था- समस्याग्रस्त भारत की कमान एक महिला के हाथ में। भारत की समस्याएं तब ऐसी नहीं थीं कि उनका समाधान साल दो साल में हो जाता । यह हर तरफ से नाउम्मीदी के अंधेरे में छटपटाते भारत की ऐसी समस्याएं थीं जिनकी जड़ों में गहरी विसंगतियां और अभाव थे। तब जैसा भारत आज है वैसा ख्वाब देख पाना भी करीब-करीब नामुमकिन था, लेकिन इंदिरा गांधी ने इतने विपरीत हालातों में यह ख्वाब न सिर्फ देखा बल्कि उसे साकार करने के लिए एक रोड मैप भी तैयार किया। एक वक्त में जो जुनून आजादी के दीवानों में था, अपने देश को गौरव दिलाने का वही जुनून इंदिरा गांधी में था, उनके साथ जुड़े विवादों और मिथकों के बीच इस बात का आकलन शायद कभी नहीं किया गया। इसी जुनून के कारण वे लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के बीच बिना किसी विदेशी सहायता के पाकिस्तान के इरादों का मुंहतोड़ जवाब दे सकीं और अपनी असाधारण कूटनीतिक कुशलता का परिचय देकर बांग्लादेश का निर्माण भी करा सकीं। पूर्व अमेरिकी राष्टÑपति निक्सन के पीए ने अपनी पुस्तक में इस बात का जिक्र किया है कि निक्सन इंदिरा गांधी से डरते थे, इसलिए वे नहीं चाहते थे कि उन्हें इंदिरा गांधी का सामना करने पड़े। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इंदिरा अपने देश के गौरव के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं करती थीं, कभी भी। अमेरिका जैसे देश के प्रभुत्व को भी उन्होंने कभी उस तरह स्वीकार नहीं किया जैसा इतनी शक्तिशाली अर्थव्यवस्था के बाद भी आज भारत के नेता कर रहे हैं। अमेरिका की ही एक संस्था ने अपने सर्वे में इंदिरा गांधी को दुनिया की एकमात्र ऐसी महिला नेत्री कहा था जिसने नारीत्व की कमियों पर विजय हासिल कर ली थी। इसके अलावा यह रिकार्ड तो आज भी इंदिरा जी के नाम पर ही है कि दुनिया के किसी भी देश की सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री वही हैं। क्या ऐसी कोई उपलब्धि, ऐसी कोई विलक्षणता या ऐसी कोई वैश्विक स्वीकार्यता हिलेरी क्लिंटन की है? जाहिर है नहीं, तो फिर क्या सिर्फ इसीलिए हिलेरी को इस सूची में छठवें स्थान पर जगह दी गई है कि वे आज दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क की विदेश मंत्री हैं? तथ्य बताते हैं कि इस तरह की सूची या सूचियां इसी तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर बनाई जाती हैं। हाल ही में फोर्ब्स ने दुनिया की सबसे ताकतवर महिलाओं की जो सूची जारी की है उसमे ंभी अमेरिकी राष्टÑपति बराक ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा को सबसे पहला स्थान दिया गया है। यह सवाल लाजमी है कि असाधारण चुनौतियों का सामना कर इतिहास रच देने वाली इंदिरा नूयी या फिर विपरीत हालात में अपनी अलग छवि और जगह बनाने वाली सोनिया गांधाी के सामने मिशेल की कोई स्वतंत्र पहचान है? नहीं है, लेकिन इसके बावजूद जो उनके पास है वह किसी के पास नहीं, आखिर वे मिसेज ओबामा हैं। इस तरह की सूचियां अच्छी बात हो सकती हैं। जब इन्हें एक पूरे समय का मूल्यांकन करने की कसौटी माना जा रहा हो, तब यह बहुत जरूरी हो जाता है कि वे इस कदर निष्पक्ष हों कि उन पर गंभीर संदेह की गुंजाइश न रह जाए। टाइम की सूचि से पता चलता है कि उसमें इस प्राथमिक शर्त का सिरे से अभाव है।

Monday, November 15, 2010

नंगो का राज

हाल ही में किंगफिशर का नया कैलेंडर आया है। इसके जारी होने पर उन मॉडल्स का ग्रुप फोटो भी जारी हुआ जिन्होंने अपने शरीर की नुमाइश इसमें की है। इस फोटो में सभी मॉडल्स मुस्करा रही हैं। यह पहली बार नहीं है। हमेशा जब भी कोई मॉडल या फिल्म स्टार नग्न तस्वीरें खिंचवाती है,ऐसी ही मुस्कराती फोटो आती हंै, मैं हमेशा सोचता हूं कि मुस्कराने और नंगेपन का क्या संबंध है? यह सवाल भी परेशान करता है कि ये मॉडल्स किस पर मुस्कराती हैं? कई बार लगता है कि वे उन लोगों पर मुस्कराती हैं जो उनकी नग्नता पर लट्टू होते रहते हैं। कई बार यह शक भी होता है कि वे उन सभी लोगों पर मुस्कराती हैं जो कपड़े पहने -पहने ही पूरी जिंदगी गुजार देते हैं, जिनमें नंगे होने का साहस ही नहीं। ेऐसे साहसिक कामों के लिए ही उनका जन्म होता है,वे एक बार यह साहस करती हैं तो फिर ऐसे ही बल्कि इससे भी ज्यादा साहसिक काम करती चली जाती हैं। एक अनंत सिलसिला बन जाता है उनकी नग्नता और मुस्कराने का। हमारे देश में नंगे कम नहीं हैं। करीब-करीब आधी आबादी के पास तन ढंकने के लिए कपड़े नहीं है लेकिन उन्हें वह कला नहीं आती जो किंगफिशर के कैलेंडर वाली सुंदरियों को आती है। हमारे गरीब इसी बात का रोना रोते रहते हैं कि उनके पास तन ढकने के लिए कपड़े नहीं है। ये सुंदरियां कपड़े होने के बाद भी उन्हें घृणा की दृष्टि से देखती हैं। शायद यही गरीबी और अमीरी की परिभाषा है कि जो चाहकर भी न पहन सके वह गरीब और जो चाहकर ही न पहने वह अमीर! कहते हैं कि नंगे से खुदा भी डरता है? सवाल यह है कि किस तरह के नंगों से खुदा डरता है? जैसे नंगे हमारे गरीब हैं,उनसे खुदा डरता होता तो ये सब भी कब के अमीर हो गए होते। नहीं ..इनसे खुदा नहीं डरता। वह जरूर ऐसे ही नंगे लोगों से डरता होगा जो अकेले में नहीं सबके सामने नंगे होते हैं और नंगे होेकर मुस्कराने की कला भी जानते हैं। इन्हीं से डरता है खुदा, नहीं तो इन्हीं पर इतना मेहरबान क्यों होता? करोड़ों की दौलत इतनी सी बात पर यदि इनके कदम चूम रही है तो यह नंगपन असाधारण होगा ही। पर बात सिर्फ इतनी ही नहीं कि कोई भी कहदे कि हम नंगेहोने तैयार हैं और उसे नंगा होने का चांस दे दिया जाए। इसके लिए बाकायदा टेस्ट होेते हैं। ये टेस्ट शरीर से आत्मा तक की जांच करते हैं कि कहीं भीतर तो कोई कपड़ा या पर्दा वगैरह नहीं है। कड़ी परीक्षा के बाद जब यह तय हो जाता है कि नहीं यह भीतर -बाहर सब तरफ एक सा ही है तभी उसे मौका दिया जाता है। इस तरह के ‘वेल क्वालीफाइड’ नंगों की बड़ी भारी जमात इस देश में है। ये सुंदरियां तो इस वर्ग की नुमांइदगी बस करती हैं ताकि लोगों को इस बात का ध्यान बराबर बना रहे कि इस देश में उन लोगों की संख्या और ताकत बड़े पैमाने पर मौजूद है जिनसे खुदा डरता है। कौन हैं वे? यह सवाल उठना स्वाभाविक है। क्या उनके भी कैलेंडर निकलते हैं? अरे नहीं...नहीं..। यदि उनके भी कैलेंडर निकलने लगे तो जैसा शिवजी की स्तुति में कहा गया है कि सारी धरती को कागज बनाकर वृक्षों के माध्यम से समुद्र रूपी स्याही से लिखा जाए तो भी उनकी महिमा नहीं लिखी जा सकती, वैसी ही बात हो जाएगी। कितना लिखा जाए इन नंगों के बारे में ! हर कहीं, हर तरफ तो यही हैं। बस नाम लीजिए किसी क्षेत्र का हर कहीं वही वही मिलेंगे। नंगो का राज है ऐसे में यदि किंगफिशरी सुंदरियां मुस्करा रही हैं तो आश्चर्य क्या? धीरेंद्र शुक्ल

ऐसे कैसे मिलेगी पंचायतों का ताकत?

उत्तर प्रदेश में त्रि स्तरीय पंचायत चुनावों के तहत पहले स्तर यानि पंचायत सदस्यों और ग्राम प्रधान के स्तर का चुनाव हो चुका है। अब बारी दूसरे और तीसरे स्तर की है। पंचायत चुनावों में जबर्दस्त हिंसा हुई और कई जगहों पर पनर्मतदान भी हुआ। अब ब्लॉक और जिला पंचायत के चुनावों के लिए भी हर तरह की बिसातें बिछ चुकी हैं। ब्लाक और जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव के लिए ग्राम प्रधानों को खरीदने के लिए उन्हें दस तोला सोना या आल्टो कार भी देने का पांसा फेंका जा रहा है। अब यह सब इतनी सहजता से होने लगा है कि आम आदमी को इसमें कुछ भी गलत दिखाई नहीं देता। लेकिन एक बात जो हर किसी को साफ दिखाई देती है पर जान-बूझकर जिसे अनदेखा कर दिया जाता है, वह है इन चुनावों में महिलाओं की स्थिति या सही मायने में उनका ‘दुरुपयोग’। पंचायतें सदियों से विकास और सुलभ न्याय की स्थानीय व्यवस्था के रूप में स्थापित रही हैं। इनके साथ लोगों का जुड़ाव इतना आत्मीय था कि वे एक जमाने में इसके प्रमुख यानि सरपंच या मुखिया को भगवान का रूप मानते थे। प्रेमचंद की कहानी‘पंच परमेश्वर ’ इसी भाव के लोक मान्यता में स्थापित होने की कहानी है। तमाम तरह के परिवर्र्तनों के बावजूद यह व्यवस्था अपने मूल स्वरूप में कायम रही। आजादी के बाद जब सभी क्षेत्रों में लूट मची और जनप्रतिनिधयों की एक बड़ी जमात ने जहां हैं, जैसे हैं , वहीं जितना लूट सको लूट लो, को अपना आदर्श बना लिया, तब पंचायती व्यवस्था में भी विकृतियां आनी शुरू हो गर्इं। इसके बावजूद यह ग्राम्य जनता के बीच संवाद स्थापित करने,छोटे-मोटे झगड़े सुलझाने और उनके सुख-दुख में कहीं न कहीं कोई भूमिका निभाने वाली इकाई बराबर बना रही। जो विकृतियां आ गर्इं थीं वे धीरे-धीरे बढ़ती गर्इं। जाहिर है ये यूं ही नहीं बढ़ रहीं थीं, इन्हें बड़ी कोशिशों से बढ़ाया जा रहा था। जिन्हें इनसे लाभ था वे इनके सहारे बड़ा खेल खेलने की युक्ति बैठा चुके थे। तब महिला सशक्तीकरण की इतनी बातें नहीं थीं, इसलिए पंचायतों में वे ही महिलाएं चुनकर आती थीं जिनका वाकई राजनीति में दखल होता था। भले ही उनकी संख्या कम रही हो लेकिन वे स्थानीय राजनीति में इतनी दखल रखती थीं कि बिना किसी पुरुष की सहायता के अपना काम बड़ी कुशलता से कर सकें। लेकिन इस पंचायत चुनाव मे जहां कहीं भी पंचायत चुनावों में महिलाएं लड़ीं उसका नजारा उनकी हालत को बयां करने के लिए काफी है। इन चुनावों में ऐसी एक भी महिला नहीं थी जिसने अपने चुनाव प्रचार के दौरान सिर्फ अपने नाम का इस्तेमाल किया हो, अनिवार्यत:उसके नाम के साथ उसके पति का नाम भी जुड़ा हुआ था। बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी, इसके दस कदम आगे ये महिलाएं घूंघट में ही प्रचार करती देखीं गर्इं, प्रचार का सारा जिम्मा भी स्वाभाविक रूप से उनके पतियों ने ही संभाल रखा था। बात सिर्फ इसी बार की नहीं हैं जबसे पंचायती राज नए शक्ल में आया है और महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू हुई है,यही हालत है। यह सभी का अनुभव है कि चुनावों के इस नजारे का वास्तविक अर्थ इन महिला प्रत्याशियों के जीतने के बाद सामने आता है। तब यह देखा जा सकता है कि इनके नाम पर न सिर्फ उनका पति, बल्कि पूरा परिवार ही सारा काम-काज संभालता है। यहां इस निर्वाचित महिला की स्थिति कुछ भी नहीं होती, उसके विचार या उसकी सहमति-असहमति यहां कोई मायने नहीं रखतीं, जो कुछ उसके परिजन करना चाहते हैं वह डंके की चोट पर करते हैं। इस सबके बारे में काई ऐसी व्यवस्था भी नहीं है जो महिला के इस तरह इस्तेमाल पर रोक लगा सके। गांवों में तो कोई इतना साहस कर ही नहीं सकता कि यदि किसी मामले में महिला प्रमुख के पति ने अपनी सहमति जता दी हो तो वह यह कहे कि नहीं मुझे मुखिया से मिलना है। हालांकि मिलने से भी होगा तो कुछ नहीं पर अपनी तसल्ली के लिए भी वह ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि जिसके नाम पर उसके परिजनों ने वोट मांगे थे वे उसे ग्राम पंचायत प्रमुख नहीं, सिर्फ एक औरत मानते हैं जो उनकी घर की इज्जत है और उससे कोई दूसरा मर्द नहीं मिल सकता। यह अलग बात है कि इसी‘ इज्जत’ के नाम पर और उसे हजारों लोगों के बीच घुमा-घुमा कर वोट मांगते वक्त उन्हें कोई असहजता या असुविधा महसूस नहीं होती और ‘घर की इज्जत ’ जैसी बात भी दिखाई नहीं देती। यहां कई सवाल एक साथ उठते हंै। पहला यह कि ग्राम पंचायतों में महिलाओं को प्राप्त अधिकारों को इस कदर इस्तेमाल किया जाना क्या सरासर धोखाधड़ी नहीं है? उन मतदाताओं के साथ, जिन्होंने उसे चुना और उस मंशा का यह खुला मजाक नहीं है जो महिला को ‘अबला से सबला’ होते देखना चाहती है। इस खुल्लमखुल्ला धांधली को रोकने समाजशास्त्रियों का ध्यान इस ओर क्यों नहीं जाता?जो कानून है उसे अमल में लाने की सार्र्थक कोशिश क्यों नहीं की जाती? क्या ऐसी कोई व्यवस्था कायम होने की दिशा में छोटी ही सही, शुरुआत नहीं हो सकती कि महिलाओं के लिए आरक्षण का लाभ सिर्फ उन्हीं को मिले? दरअसल यह ऐसा नाजुक और पेचीदा सामाजिक मामला है जिसकी जड़ें हमारे सामाजिक ताने-बाने में मौजूद हैं। अशिक्षा भी इसका एक बड़ा कारण है, और फिर राजनीति तो है ही । लालू प्रसाद यादव को जब चारा घोटाले में जेल हुई तो उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया था। राबड़ी की स्थिति तब अनुभवहीन और नौसिखिया महिला की ही थी लेकिन लालू ने सिर्फ अपने और अपने पिछलग्गुओं के दम पर ऐसा कर दिखाया। जब वे बाहर आए तो उन्होंने भी राबड़ी के नाम पर खुलकर सरकार चलाई और सारा देश देखता रहा। विश्लेषण करते जाएं तो यह लगने लगता है कि महिलाओं की आड़ में राजनीति करने के संस्कार गांव के छोटे खिलाड़ियों ने लालू सरीखे बड़े खिलाड़ियों और उनके शहरी मानस पुत्रों से ही ग्रहण किए हैं। शहरों में महापौर और जिला पंचायत से लेकर सांसदों तक के चुनाव में यही स्थिति देखी जा सकती है। यहां भी महिलाएं सिर्फ मोहरा होती हैं, चाल तो उनके पति ही चलते हंै। इस स्थिति में यह शक भी निराधार नहीं लगता कि यदि राजनीति में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण का विधेयक पास हो भी जाता है तो उसका यही हश्र हो सकता है। कई बातें हैं जो आपस में गुंथी हुई हैं, लेकिन जरूरी है कि उनका कोई सिरा पकड़कर इन्हें सुलझाने की दिशा में कोई ऐसी कोशिश की जाए जिसके परिणाम भी दिखाई देने लगें। इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ग्राम ंपंचायत हो या शहरों में पार्षद का चुनाव लड़ती महिलाएं, सभी के लिए यह शिक्षा को लेकर भले ही बंदिशें न हों पर यह जरूरी कर दिया जाए कि वही महिलाएं इन चुनावों में प्रत्याशी हो सकेंगी जिन्हें सामाजिक जीवन में सक्रियता का अनुभव हो। प्रायमरी कक्षाओं में पढ़ाने के लिए आवेदन देने वाली महिलाओं से भी यह अपेक्षा की जाती है कि उन्हें पढ़ाने का अनुभव होना चाहिए, तो फिर इस मामले में ऐसी किसी बात को व्यवहार में लाने की बात करना और इस दिशा में पहल करना भी अव्यावहारिक नहीं माना जा सकता। यह भी तय है कि ऐसी किसी भी कोशिश का शुरू में विरोध भी जमकर होगा और बाद में इसका ‘तोड़’ निकालने की कोशिशें की जाएंगी। लेकिन इन सबके बाद भी ऐसी कोशिशें नई पहल हो सकती हैं और संभव है कि वे सार्थक भी हों।

अब तो आदत बन गई हैआसमान छूना

भारत युवाओं का है, इस बात का अर्थ सिर्फ यह नहीं है कि यहां उम्र के लिहाज से सबसे ज्यादा युवा हैं, इस बात का असल मायने यह है कि यह संभावनाओं का भारत है। सारी दुनिया में प्राच्य विद्याओं के लिए तो हमेशा ही भारत को जगतगुरु कहा जाता रहा है लेकिन आज के संदर्भों और चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में हम अपनी कोई पहचान नहीं बना पाए थे। पिछले एक दशक में हमारे युवाओं ने यह तस्वीर बदल दी है। अब रचने का ऐसा कोई भी क्षेत्र शेष नहीं है जहां भारत ने अपनी छाप न बनाई हो। किसी देश के पास परमाणु शक्ति और सैन्य ताकत कितनी है यह उसके ताकतवर होने का पैमाना आज तो कतई नहीं है। आज विज्ञान,खेल,तकनीक,संचार माध्यम, सिनेमा,संगीत,साहित्य और ऐसी ही अन्य विधाओं में नए क्षितिज का स्पर्श करने की क्षमता और दक्षता के आधार पर ही किसी देश की समग्र प्रगति की माप तय होती है। इन सभी क्षेत्रों में भारत ने इतना जबर्दस्त प्रदर्शन किया है कि दुनिया भौंचक है। ओलंपिक में अभिनव बिंद्रा के स्वर्ण और सुशील कुमार तथा विजयेंद्र सिंह के कांस्य पदक जीतने से इन खेलों में चला आ रहा शून्य भारत ने खत्म कर दिया है । सायना नेहवाल ने करीब दो दर्जन अंतराष्टÑीय स्पर्धाओं के खिताब अपने नाम कर विश्व स्तर पर दूसरे नंबर की खिलाड़ी होने का गौरव पाया है। विज्ञान में भारत का आईटी पर प्रभुत्व जग जाहिर है, बेशक वे अमेरिका में रह रहे हैं लेकिन युवा वैज्ञानिक रामकृष्णनन ने नोबल पुरस्कार जीतकर भारतीय प्रतिभाओं की क्षमताओं को ही वैश्विक रूप से उजगर किया है, उनकी ग्रेजुएट स्तर तक की पढ़ाई भारत में ही हुई है। संगीतकार एआर रहमान ने आस्कर पुरस्कार जीत कर संगीत के क्षेत्र में भारतीय युवाओं की सशक्त मौजूदगी दर्ज कराई है। अमित त्रिवेदी अभी 31साल के हैं पर उनमें वे संभावनाएं दिखाई दे रही हैं कि दुनिया का कोई भी पुरस्कार उनके हाथों की जद में आ सकता है। छह फिल्मों में कर्णप्रिय और लोकप्रिय संगीत देकर वे सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का राष्टÑीय पुरस्कार जीत चुके हैं। नागेश कुकनूर और नीरज पांडे का नाम इस दौर के सबसे ज्यादा प्रयोगधर्मी फिल्म निर्देशकों में उल्लेखनीय है। ये युवा फिल्मकार सामाजिक सरोकारों वाली फिल्में बनाकर इस माध्यम की ताकत का इस्तेमाल आम आदमी के हालात बेहतर बनाने की दिशा में कर रहे हैं। सिनेमा में तेजी से उभरता क्षेत्र है एनीमेशन का। भारत की साख इसमें इतनी है कि सिर्फ बेंगलुरू के ही दस ऐसे एनीमेशन स्टूडियो हैं जो कई हालीवुड फिल्मों के लिए आउटसोर्सिंग का काम कर रहे हैं, जाहिर है उनका काम विश्वस्तर का है और उसे स्पिलबर्ग जैसे निर्देशकों द्वारा भी सराहा जा रहा है। भारत में इलैक्ट्रनिक मीडिया यानी न्यूज चैनल दूसरे देशों की अपेक्षा ज्यादा युवा हैं वैचारिक और सामाजिक सरोकारों की दृष्टि से भले ही उन्हें परिपक्व होने में और वक्त लगे पर उनकी व्यापकता और प्रभाव दिनों दिन बढ़ रहा है। इन चैनल्स के एंकर से लेकर कर्ता-धर्ता तक सब युवा ही हैं। यहां पर एक नाम बेहद उल्लेखनीय है, पी सांईनाथ का। उन्होंने प्रिंट मीडिया की प्रामाणिकता,सामाजिक सोद्देश्यता और प्रभाव बनाए रखने के लिए जो कोशिशें की हैं उन्हें वैश्विक स्तर पर सराहा गया है। 2007 मेंं उन्हें प्रदान किया गया रेमन मैग्सेसे पुरस्कार दरअसल उनके इन्हीं कामों को वैश्विक समुदाय की स्वीकृति थी । टाइम्स ग्रुप की फैलोशिप पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी-‘‘एवरी बडी लव्स ए गुड ड्राउट ’’ यह पुस्तक इस बात पर केंद्रित थी कि अकाल किन-किन इलाकों में सबसे ज्यादा पड़ता है और सीधे तौर पर इससे फायदा किन -किन लोगों को होता है। इस पुस्तक के दर्जनों विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुए और आज यह दुनिया के करीब तीस देशों के विश्वविद्यालयों में किसी न किसी रूप में पढ़ाई जाती है। साहित्य के क्षेत्र में भारतीय युवाओं का परचम शान से लहरा रहा है। झुंपा लाहिड़ी ने 1999 में अपनी पुस्तक ‘इंटरप्रेनर आफ मालदीव के’ जरिए साहित्य में कदम रखा और इसके ठीक एक साल बाद ही सन् 2000 में उनके उपन्यास ‘द नेमसेक ’ को साहित्य के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक ‘पुलित्जर पुरस्कार’ प्रदान किया गया। नो बडीज बिजनेस,हेल-हेवन, वंस इन ए लाइफ टाइम और इयर्स एंड उनकी लघुकथाओं के संग्रह हैं। कला एवं मानवीय सरोकारों के लिए अमेरिकी राष्टÑपति बराक ओबामा द्वारा गठित समिति में भी झुंपा को सदस्य मनोनीत किया गया है। इसी कड़ी में एक और नाम है रॉबिन शर्मा का। उनकी पुस्तक‘द मोंक हू सोल्ड हिज फरारी’ ने सारी दुनिया के व्यवसाय प्रबंधन के क्षेत्र में तहलका मचा दिया था। ‘द लीडर हू हेव नो टाइटल: ए माडर्न फेबल आन रियल सक्सेस इन बिजनेस एंड लाइफ’ उनकी गे्रटनेस गाइड सीरीज की एक और खास किताब है। उनके काम का दुनिया के 60 देशों की 70 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। चेतन भगत फाइव पॉइंट समवन, ए नाइट @कॉल सेंटर और थ्री मिस्टेक्स आफ माइ लाइफ जैसी पुस्तकों के जरिए दुनिया के युवाओं के बीच लोकप्रिय लेखकों की कतार में सबसे आगे हैं। राजनीति में राहुल गांधी युवा भारत के सबसे पसंदीदा चेहरे हैं। वे धीरे-धीरे अपनी पसंद के युवाओं का चयन कर राजनीति में शुचिता और संवेदनाओं की स्थापना की कोशिश कर रहे हैं और उनके पसंदीदा युवा हैं सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि आदि। धर्म के क्षेत्र में बाबा रामदेव का नाम सारी दुनिया में सम्मान से लिया जा रहा है। वे योग के शिखर पुरुष के रुप में अपनी पहचान बना चुके हैं। यह पहली बार है जब भारत स्वत:स्फूर्त होकर इस तरह आगे बढ़ रहा है। उसकी युवा ऊर्जा सभी ऊंचाइयों को अपने कदमों से नाप रही है। उनमें असीम संभावनाएं हैं, आसमान छूना अब उनकी हसरत नहीं आदत बन चुकी है। - धीरेंद्र

Monday, September 27, 2010

शिक्षा के सबक बेचतीं परचून की दुकानें

कवि मैथलीशरण गुप्त ने करीब पांच दशक पहले कहा था- शिक्षे तुम्हारा नाश हो, तुम अर्थ का साधन बनी। वे आज होते तो क्या करते और क्या कहते? शिक्षा में बाजार के घुसपैठ की आहट उन्होंने पचास साल पहले सुनी थी और आज हालत यह है कि बाजार ने शिक्षा को उसके ही घर से बेदखल कर दिया है। शिक्षा के सारे सूत्र और संभावनाएं बाजार के हाथ में हैं। संस्कारों और मूल्यों की बातें करना यहां अब दकियानूस होने की निशानी बन गया है । जब सभी कुछ बाजार का है तो जाहिर है कि भाषा और चरित्र भी बाजार का ही है। जिसे कभी शिक्षा का मंदिर कहा जाता था, वे शालाएं इसीलिए अब शिक्षा की दुकानें हैं। जब दुकानें हैं तो उन्हें चलाने वाले भी खासे दुकानदार ही हैं। पहले स्कूल चलाने के लिए जरूरी होता था कि संचालक की मंशा पवित्र हो, वह अपनी पीढ़ी को जीवन मूल्योें के साथ स्तरीय शिक्षण की सामर्थ्य भी रखता हो। अब चूंकि सवाल दुकान का है इसलिए यहां का गणित दूसरा है। बेहतरीन बिजनेस वाले स्कूल के लिए जरूरी है कि कम से कुछ एकड़ों या बीघों की जमीन हो, इस जमीन पर किसी मल्टीप्लैक्स सी दिखने वाली इमारत बनवाने के लिए कुछ करोड़ रुपये हों,एकाध दर्जन बसें हों और विज्ञापन के लिए ढेर सारा फं ड अलग। जाहिर है यह किसी आम आदमी के बूते की बात नहीं है इसलिए जिनकी तिजोरियां धन की हजार धाराओं की मिलन स्थली बन गई हैं ऐसे भू माफिया, राजनेता,ठेकेदार, धर्म के ठेकेदार और इसी जमात के दूसरे तमाम लोग स्कूल के धंधे में हैं। जब स्कूलों के मामले में हालात ऐसे हैं तो अनुमान लगाया जा सकता है कि कॉलेजों को लेकर क्या स्थिति होगी। हाल ही में आगरा में इनकम टैक्स विभाग ने शारदा ग्रुप आॅफ इंस्टीट्यूशन्स,जीएल बजाज और सुनील गलकोटिया ग्रुप के यहां छापा मारकर करीब 200 करोड़ रुपए की बेनामी संपत्ति उजागर की है। ये ग्रुप इंजीनियरिंग,मेडिकल और मेनेजमेंट के कोर्सेस चलाते हैं। यह एक बहुत ही छोटी सी घटना है। पूरे देश के हर छोटे बड़े शहर में दर्जनों की तादाद में ये कोर्सेस चलाने वाले कॉलेज धड़ाधड़ खुल रहे हैं। एक वक्त था जब इंजीनियर, डाक्टर बनना अपने आप में सामाजिक रुप से बड़ी प्रतिष्ठा की बात होती थी। इसके कारण भी थे। तब एक बात यह तय मान ली जाती थी कि इस तरह की डिग्री हासिल करने वाला व्यक्ति योग्यता की कसौटी पर खरा है। उसे इसका पारितोष भी मिलता था। सरकारी नौकरी तो उसे मिल ही जाती थी। अब ऐसा नहीं है। इंजीनियरिंग के लिए टेस्ट अभी भी होते हैं लेकिन सबकी सिर्फ औपचारिकताएं हैं। थोड़े बहुत अंक हासिल करने वाले को भी किसी न किसी फिसड्डी कालेज में एडमीशन मिल ही जाता है, बस उसकी फीस चुÞकाने की हैसियत होनी चाहिए। मेडिकल का क्षेत्र तो सबसे ज्यादा बदत्तर बना दिया गया है। महाराष्टÑ में दशकों से ऐसे कॉलेज चल रहे हैं जो बीस-बीस लाख रुपए लेकर बिना स्पर्धा के एडमीशन दे देते हैं। खास बात यह है कि शिक्षा की बड़ी दुकानों के संचालकों ने ऐसे -ऐसे नारे गढ़ दिए हैं कि उनकी चमक में असलियत दिखाई ही नहीं देती। सिविल इंजीनियरिंग से बीई की डिग्री लेने वाले दर्जनों युवक -युवतियों को किसी बिल्डर के यहां आज के दौर की बहुत मामूली सी तनख्वाह पर नौकरी करते देखा जा सकता है। एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि सरकार को जितने इंजीनियर्स हर साल चाहिए उससे करीब दोगुने हर साल पास आउट हो रहे हैं। यह एक सच है जो कभी सामने नहीं लाया जाता। मेडिकल में स्थितियां दूसरी हैं। यहां सरकारी मांग ज्यादा है लेकिन यह ऐसा काम है जो चाहे जहां बैठकर शुरु किया जा सकता है, बिना खास लागत के इसलिए इसके पढ़े विद्यार्थी सरकारी नौकरी में जाना नहीं चाहते, जाहिर है मोटी रकम देकर डिग्रियां लेने वाला उसकी कीमत आम आदमी से वसूल करने के लिए घात लगाए बैठा रहता है। बाजार के इस खेल में जो नुकसान हो रहा है उसकी तरफ सरकारों का ध्यान नहीं है। अब उच्चशिक्षा की उपलब्धता तो बढ़ी है, उसका मात्रात्मक विस्तार तो हुआ है लेकिन उसकी गुणात्मकता खो रही है। शायद इसीलिए कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स और नोबेल विजेता रामकृष्णन जैसी प्रतिभाओं का निखार और विस्तार भारत में नहीं हो पाता और ऐसे नाम भारतीय मूल के भले हों भारत के नहीं हो पाते। आंकड़ों के आइने में भी यह बात साफ दिखाई देती है। भारत ने आजादी के बाद से उच्च शिक्षा में जबर्दस्त प्रदर्शन किया है। 1947 में भारत में कुल 18 विश्वविद्यालय और 518 महाविद्यालय थे जिनमे 2,28,881 विद्यार्थी पढ़ते थे और उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या थी 24000। साल 2009 तक यह स्थिति पूरी तरह बदल गई आौर विश्वविद्यालयों की संख्या हो गई 518, और महाविद्यालय हो गए25951 । इनमें एक करोड़ छत्तीस लाख बयालीस हजार विद्यार्थी पढ़ रहे थे और उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या थी 5,85,000। यह उच्च शिक्षा का विस्तार था लेकिन इसकी गुणवत्ता कितनी निखरी इसकी तस्वीर थामस रायटर द्वारा कराए गए एक सर्वे के निष्कर्ष में साफ देखी जा सकती है। इसमें कहा गया है कि भारत का उच्च और उच्चतर शिक्षा में सकल दाखिला अनुपात महज 11फीसदी है, जो विकसित देशों की तुलना में काफी कम है। अमेरिका में यह 83फीसदी है तो कोरिया में 91फीसदी। चीन, उच्च शिक्षा और शोध दोनों ही क्षेत्र में हमसे आगे हो गया है। वर्ष 1988-93 में शोध के क्षेत्र में चीन की हिस्सेदारी महज 1.5प्रतिशत थी लेकिन वर्ष 1999- 2008 में उसने इसमें जबर्दस्त सुधार करते हुए उसने इसे 6.2 फीसदी तक पहुंचा दिया। भारत की स्थिति उलटी रही साल 1988-93 में 2.5 फीसदी हिस्सेदारी के साथ भारत चीन से बेहतर स्थिति में था लेकिन साल 1999- 2008 में उसने नाममात्र की बढ़त हासिल की और यह आंकड़ा महल 2.6 तक ही पहुंच पाया। भारत के पूर्व राष्टÑपति डा.एपीजे अब्दुल कलाम ने अपने कार्यकाल में इसी बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया था कि विश्वविद्यालयों को अपनी शोध क्षमताओं का विस्तार करना चाहिए। लेकिन जिस देश के एक छोटे से प्रदेश में एक-एक कमरे में तीन दर्जन से ज्यादा विश्वविद्यालय खोल दिए गए रहे हों, जहां आज भी 21 विश्वविद्यालय फर्जी हों और जहां शिक्षा की गुणवत्ता को कोई मानक ही न हो वहां कलाम जैसे वैज्ञानिकों की हसरतें भला कैसे पूरी हो सकती हैं?

Sunday, September 26, 2010

शहरयार को ज्ञानपीठ सम्मान

उर्दू के बेमिसाल शाइर कुंअर अखलाक मुहम्मद खान ‘शहरयार’ को 44 वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई है। वे यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले उर्दू के चौथे शायर हैं। उन्हें इस पुरस्कार से सम्मानित किए जाने के कई मायने हैं। यह एक शाइर और उसके रचनाकर्म का सम्मान तो है ही इसके अलावा भी बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनका मूल्यांकन शहरयार को इस पुरस्कार का सहज अधिकारी बनाता है। उनके गीत, गजल और नज्में साहित्य और आम पाठक के बीच एक गहरा रिश्ता कायम करती हैं। उनका ताल्लुक समाज के हर वर्ग से रहा है, उनसे भी जो हर तरह के साहित्यिक संस्कारों से दूर रहते आए हैं। यह उनके रचनात्मक कौशल का ही करिश्मा है कि उमराव जान की गजलें करीब ढाई दशक का लंबा फासला तय करने के बाद भी ऐसे ही आदमी की जुबान पर मचलती रहती हैं, फिजां में गूंजती रहती हैं। बदलते वक्त ने आदमी और समाज में जो एकाकीपन पैदा कर दिया है उसकी गूंज शहरयार की गजलों में बहुत पहले से सुनाई देती रही है। करीब तीन दशक पहले आई फिल्म गमन की यह गजल आज भी हर संजीदा जहन की वीरानियों में गूंजती है-सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यों है, इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है। एक और गजल फिल्म आहिस्ता-आहिस्ता के जरिए लोगों तक पहुंची- कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आसमाँ नहीं मिलता...। ये गजलें गंभीर हैं और इंसानी जज्बातों को बेहद खूबसूरती से नुमाया करती हैं। आमतौर पर आमदर्शक गंभीरता से परहेज करता है लेकिन शहरयार की ये और ऐसी ही गजलें इसलिए लोगों के दिलों में बसती हैं कि यह किसी फिल्म की नहीं, किसी शाइर की नहीं , उन्हें अपनी ही बात लगती हैं। इसी गजल की आखिरी पंक्ति है- तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो, जहां उम्मीद हो उसकी वहां नहीं मिलता। भला ऐसा कौन होगा जो अपनी जिंदगी में कहीं न कहीं , कभी न कभी इस सच्चाई से रू-ब-रू न हुआ हो। जिंदगी ऐसे ही तल्ख और तल्ख होती चली जाती है, ऐसे भी हालात हो जाते हैं कि इंसां के जिस्म में लहू की बजाय जहर दौड़ने लगता है- शहरयार की गजल का एक शेर है-इक बूंद जहर के लिए फैला रहे हो हाथ, देखो कभी खुद अपने बदन को निचोड़ के।

Friday, September 17, 2010

खो रहा रिश्तों का सौंदर्य

जीवन में लगातार बढ़ते संघर्षों से हमारे रिश्ते सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त हुए हैं। यह विचार और मूल्यों का नहीं बाजार का युग है। इसकी अपनी मांगें हैं जिनमें भावनाओं और संवेदनशीलता की गुंजाइश ही नहीं है। पहले ऐसा होता था कि जिन्हें ऐश्वर्यशाली, सर्वसुविधायुक्त जीवन की चाह रहती थी उन्हें इसका मूल्य चुकाना पड़ता था लेकिन अब इससे भी हजार कदम आगे औसत जीवन स्तर के लिए भी इसी तरही की कीमत चुकाना एक शर्त बनता जा रही है। हममें से अधिकतर लोग इस शर्त को पूरी भी कर रहे हंै। दिन-रात की भागदौड़ के बीच कहीं न कहीं हमारे जीवन का सौंदर्य खो गया है। हमारे रिश्तों के नाजुक फूल कुम्हला रहे हैं। जिंदगी में हर बात के लिए तो जगह बनती जा रही है,बस जिंदगी जीने की जगह शेष नहीं है। ऐसे परिवारों की संख्या में लगातार इजाफाा हुआ है जिनमें पति-पत्नी दोनों ही नौकरीपेशा हैं। दोनों के काम पर जाने और वापस आने का समय भी अलग-अलग है। कहीं-हालात ऐसे हैं कि दोनों की हफ्ते-हफ्ते तक बात नहीं हो पाती। ऐसे दंपत्तियों के बच्चे आधे-अधूरे रिश्तों के साथ बड़े होते हैैं। बच्चे हमेशा ही आकाश से रिश्ते चाहते हैं। उनका सुकोमल मन भावनाओं की स्निग्ध ओस से ही पलता-बढ़ता है। ऐसे दंपत्तियों के बच्चे इस ओस से , इस स्निगधता से वंचित रह जाते हैं। ऐसे लोगों का जीवन अपना स्वाद खोने लगता है, ऊब पैदा होने लगती है। इसका एहसास उन्हें भी होता है पर वे इसे समझने की बजाय, इस भीतरी खालीपन को भरने की बजाय बाहर के उपाय करने लगते हैं। विकल्प हर जगह मौजूद रहता है,बस उसे देखने के लिए सिर्फ नजर की ही नहीं साहस की भी जरूरत होती है। दरबसल विवशताएं उतनी भी नहीं होतीं जितनी हम समझ लेते हैं। विवशताओं की मारक जकड़न की एक वजह यह भी होती है कि हम अपनी बुनियादी जरूरतों की सही -सही शिनाख्त भी नहीं कर पाते। इसीलिए कुछ लोगों को लगने लगता है कि शान-ओ-शौकत भी हमारी जरूरत हैं। यह चिंतन अधिकांश लोगों के जहन में सिरे से गायब होता जा रहा है कि हमारी सारी फितरतें, सारी भागदौड़ किसलिए है? आखिर हमारे कुछ भी संग्रहित करने का मूल उद्देश्य यही तो है कि हम जीवन को आनंदमय बना सकें और उसका लुत्फ अपनों के साथ ले सकें। रिश्ते ही हमारी स्वादेंद्रिय हैं। इन्हीं के मार्फत हम हर लम्हे का, वक्त का मजा ले सकते हैं। जिंदगी के कितने रंग हैं जो आपने देखे हैं पर आपका बच्चे ने नहीं । आपने अपने माता-पिता की ऊंगलियां पकड़कर चलना सीखा होगा पर अपने बच्चे को ऊंगली पकड़ाकर चलाने का वक्त आपके पास नहीं है। आपने अपने दादा-दादी,नाना-नानी के साथ छुट्टियों का ढेर सारा वक्त गुजारा होगा, उनसे कहानियां सुनीं होंगी पर आपका बच्चा तो इन रिश्तों के बारे में खास कुछ नहीं जानता। कहानियां क्या होती हैं यह भी उसे नहीं पता! आपतो हर वक्त अपने मम्मी -पापा से स्कूल की बातें बताते थे, उनके साथ टीवी देखते थे,घूमने जाते थे पर आपके पास है इतना वक्त अपने बच्चों के लिए? शायद नहीं। आपके वाजिब से लगने वाले तर्क होंगे कि ‘‘क्या करें, चाह कर भी समय ही नहीं मिल पाता। अब नौकरी करें या बच्चों की इन बातो पर ध्यान दें’आप सिर्फ इन तर्कों के समर्थन में ही नहीं बल्कि आपने इन्हें अनिवार्य मान लिया है और आपकी नजर में इनका कोई विकल्प नहीं है। लेकिन वाकई क्या ऐसा ही है? सोचिए! घर की बैठक में आप बदलाव करते रहते हंै, कुछ चीजें यहां-वहां करते हैं, फिर जिंदगी में यह बदलाव क्यों नहीं ? अपनी वास्तविक जरूरतों के बारे में सोचिए और अपने रिश्तों को यदि कुछ देना चाहते हैं तो बुनियादी जरूरतों की आसानी से उपलब्धता के अलावा उन्हें वक्त दीजिए। कहते हैं समय ही सोना है। रिश्तों के लिए समय सोना नहीं हीरा है, सबसे कीमती ।

नारी मन की समर्थ चितेरी:उत्तमा

वक्त बेरंग होता है, लोग उसमें रंग भरते हैं-अपनी जिंदगी का। लोग बदलते हैं, पीढ़ियां बदलती हैं तो यह रंग भी धूसर होने लगते हैं, फिर इनकी जगह कोई नया रंग, कोई नई बात अपनी जगह बनाने लगती है। लेकिन इस चक्र में भी कुछ हिस्सा ऐसा होता है जो हमेशा सुरक्षित होता है। समय की शिलाओं पर कुछ रंग हमेशा ताजा रहते हैं और कुछ आवाजें हमेशा इसकी वादियों में गूंजती रहती हैं। कलाएं इसीलिए शताब्दियों के लंबे सफर के बाद भी महफूज रहती हैं। कला का यह शाश्वत स्पर्श, किसी भी कलाकार को गहरे समर्पण और सृजन से ही हासिल हो पाता है। सृजनात्मकता व्यक्ति से उत्पन्न होेकर समिष्टि को ,सारी कायनात को अपने आप में समेट लेती है और एक कलाकार की बात सारी दुनिया की बात हो जाती है। उत्तमा दीक्षित ऐसी ही कलाकार हैं जिनमें यह हुनर है और जिनका काम कला की शाश्वतता को छूता हुआ प्रतीत होता है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पैंटिंग एंड आर्ट्स डिपार्टमेंट में सीनियर लैक्चरर डा.उत्तमा का संबंध आगरा से भी रहा है। वे यहां के प्रतिष्ठित आगरा कालेज के कला संकाय में करीब पांच साल तक प्राध्यापक रहीं। उत्तमा ने इसी साल अप्रेल में पांच विविध विषयों पर अपनी पेंटिं सीरीज लांच की है। इनमें बनारस के घाटों पर नौ ,प्रकृति पर चौदह, भारतीय स्त्री पर सोलह और जयशंकर प्रसाद रचित महाकाव्य कामायनी पर आधारित श्रंखला में सात चित्र शामिल हैं। इसके अलावा स्वतंत्र विषय पर भी सात चित्रों का समावेश है। इनमें कामायनी पर आधारित चित्र श्रंखला सबसे ज्यादा चर्चाओं में है। इसका कारण सिर्फ इतना है कि उत्तमा ने इस सीरीज में मनु इड़ा और श्रद्धा की वही भावभंगिमाएं प्रदर्शित करने का साहस किया है जिनका वर्णन प्रसाद ने किया है। ये पेंटिंग एक सीमा तक प्रसाद के भावों को संप्रेषित करने में सक्षम हैं। उत्तमा का कहना है कि-‘‘मैने संघर्ष बहुत किया और उपेक्षा भी बहुत सही, मेरी यात्रा संघर्ष भरी रही है’’ उत्तमा के इसी संघर्ष ने उन्हें स्थापित मान्यताओं से, समाज से और वक्त से भी लड़ने का माद्दा दिया है। उनकी यह संघर्षपूर्ण यात्रा जितनी कठिन बाहर थी उससे ज्यादा दुरुह और तकलीफदेह भीतर। इससे उनकी एक नजर बनी, दृष्टि का विकास हुआ। स्त्री के हालात पर गजब का पाखंड एक कलाकार ने समाज में देखा है और शायद इसीलिए कहीं न कहीं उनके अचेतन में स्त्री का वह रुप, वह सच्चाई बहुत गहरे उतर गई है - तमाम चमकीले आकड़ों के बाद भी जिसकी हालत में कोई सुधार नहीं आता । जो घरों में सताई जा रही है, बंद है,जिसकी हसरतें बाहर आने के लिए छटपटा रही हैं। उत्तमा के बहुसंख्य चित्रों में ऐसी ही स्त्री कई -कई रुपों में सामने आती है। आम तौर पर बनारस के घाटों का जिक्र आते ही नजर में धार्मिक वातावरण कौंध जाता है, जिसमें मंदिर हैं, स्नान करते लोग और पंडे वगैरह हैं। लेकिन उत्तमा की बनारस के घाटों पर जो चित्र श्रंखला है उसमें ये सब नदारद हैं। यहां स्त्री की मुश्किलें उसके मनोभावों का चित्रण ही प्रमुख रुप से हुआ है। भारतीय स्त्री पर सबसे ज्यादा सोलह चित्रों का सृजन भी उनके मन की दशा की सार्थक अभिव्यिक्ति करता है। इन चित्रों में नारी मन संघर्ष उभर कर सामने आया है जो दर्शक के मन को भी अपने साथ ले जाता है, उसे छूता है। इन सोलह चित्रों में से छह तो सिर्फ इंतजार पर हैं। इनमें से पांच में प्रतीक्षा की पीड़ा आंखों से साफ झलकती है तो एक में अपने प्रिय के आने की खुशी का भाव भी है। इन्हीं चित्रों में उस जमाने से बचने की कोशिश करती स्त्री है , जिसकी नजरों में भी नाखून हैं। उत्तमा के चित्रों में रंग संयोजन विषय के मुताबिक है। उनके अधिकांश चित्र मन के गहरे अंधेरों को अभिव्यक्त करने के प्रयास हैं इसलिए इनका रंग संयोजन डार्क है। कहीं -कही जहां ऐसी स्थितियां नहीं हैं वहां हल्के रंगों का इस्तेमाल किया गया है। स्त्री श्रंखला के ही दो चित्रों में यही बात है तो माइ क्रिएशन सीरीज के चित्र में भी इसे देखा जा सकता है। धीरेंद्र शुक्ल

Wednesday, September 1, 2010

सावन में झरता है आनंद

सावन -यह शब्द सुनते ही मनमें कुछ मचलने सा लगता है। इसका जिक्र होते ही अपने भीतर किसी कोने में मुर्झाए पड़े सुख के क्षण जीवंत होकर मचलने लगते हैं। मनुष्य और प्रकृति का उल्लास,आनंद इस समय झर झर झर करता हुआ झरता रहता है। गर्मियों में सवाल से पूछते सूखे खड़े पेड़ मानो हरीतिमा की चादर ओढ़कर नाचने लगते हैं और वीरान समाधियों से दिखते विशाल पर्वतों में जीवन की लहर दौड़ती रहती है। युवाओं के लिए यह मस्ती का मौसम है तो घर-बार वाले सनातन धर्मावलंबियों के लिए यह धर्म की वैतरणी के साक्षात होने का समय । जिनके प्रिय उनसे दूर हैं उनके लिए इसकी बूंद -बूÞद आग लगाने वाली है तो जिनके प्रिय पास हैं उनके लिए इसकी एक -एक बूंद अमृत की तरह है। अपने हर रंग में , हर मिजाज में सावन आनंद घोलता दिखाई देता है। इस बार हम आपके ही साथ तय कर रहे हैं सावन का यह मस्ती भरा सफर- मस्ती भर है समां... चिलचिलाती धूप में जब प्रकृति और मनुष्य बुरी तरह झुलस जाते हैं तब सबकी आस यही रहती है कि कब बारिश आए और राहत मिले । आषाढ़ का माह आते ही यह आस पूरी होनी शुरू होती है,और जब सावन आता है तब गर्मी की जानलेवा बेचैनी की रही सही यादों को भी मन धो डालना चाहता है । अधिकांश युवा इस मौसम का जमकर मजा लेते हैं । वे अधिकतर अपने दोस्तों के साथ भीगते हुए लांग ड्राइव पर निकल जाते हैं या जहां -जैसा मौका मिले मस्ती के बहाने ढूÞढ लेते हैं। मौसम वैज्ञानिक दृष्टि से भी मानसून अब तक पूरी तर सक्रिय हो जाता है। सब के लिए मनभावन सावन की दूसरी तमाम खासियतों, नजाकतों के अलावा एक खासियत यह भी होती है कि यह बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सभी को अच्छा लगता है, बहुत अच्छा लगता है। बचपन की सबसे ज्यादा सरस स्मृतियां शायद इसी से जुड़ी होती हैं। सुदर्शन फाकिर की एक नज्म है- ये दौलत भी ले लो ,ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी/मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन /वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी। सावन में सड़कों पर भीगते -दौड़ते बच्चों को देखकर उदासी दूर हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे जीवन पूरे वेग से खिलखिला रहा है। बचपन का ऐसा उल्लास , ऐसा रंंग किसी और ऋतु में दिखाई नहीं देता । ्र्रप्रकृति का यौवन सावन प्रकृति का यौवन है, जवानी है। इसीलिए यह अकारण नहीं है कि इसे काम ऋतु भी कहा जाता है। काम शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है इसका अर्थ कामना भी है और सृजन की उत्कंठा भी। इसलिए इस ऋतु का असाधारण प्रभाव पड़ता है । इस ऋतु में जैसे आयोजन होते हैं वैसे और कभी नहीं होते । इसी ऋतु में आम के पेड़ों पर झूले पड़ते हैं और उनमें यौवनाएं झूलती हैं । ऐसा लगता है मानो प्रकृति और देह का उल्लास एकाकार हो रहा हो। सृजनात्मकता के लिए प्रेरक यह सृजन से जुड़े लोगों को ही सृजनात्मकता के लिए प्रेरित नहीं करता बल्कि यह हर किसी में सृजनात्मकता का संचार भी करता है।गांवों में इसका प्रभाव देखा जा सकता है। ग्राम्य कला के सबसे शिखर दिन यही होते हैं। इन्हीं दिनों में लोकगीतों का समाँ बंधता है, लोककलाएं परवान चढ़ती हैं और धर्मसभाओं का भी आयोजन होता है। यह संभवत: काम का ही आध्यात्कि रूपांतरण है कि मीराबाई कहती हैं-बरसे बदरिया सावन की/सावन में मेरो उमग्यो मनवा, भनक परी हरि आवन की। यानि सावन में मीरा का मन भी उल्लास से भर जाता है और उन्हें इसी माह में अपने प्रभु के आने की भनक लगती है। धर्म की अलख सावन भूतभावन भगवान शिव का माह माना जाता है । पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव का एक रूप जल भी है। सावन की वृष्टि का आशय भगवान शिव की कृपा वृष्टि भी है। इसके अतिरिक्त पतित उद्धारक माह भी इसे कहा जाता है। पौराणिक आख्यान है कि जिनकी मुक्ति कहीं नहीं होती , किसी प्रकार नहीं होती वे श्रीमद भागवत कथा श्रवण से मुक्त हो जाते हैं। श्रीमद भागवत कथा श्रवण के लिए भी श्रावण मास को सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है। यह भक्ति के आनंद रस की वर्षा का माह है। अधिकांश शहरों में जगह-जगह बने शिवालयों में शिवाभिषेक और श्रीमद् भागवत कथारस की वर्षा होते देखे जा सकती है। इसी माह में एक अदभुत त्यौहार आता है नागपंचमी । पौराणिक दृष्टि से तो सांप शिव के गण है इसलिए उनकी पूजा होती है लेकिन सावन में इस पर्व के आने का विशेष अर्थ है। इसका अर्थ यह भी है कि मनुष्य उन बातों को, उन जीवों को और उन प्रवृत्तियों को भी अपने जीवन में सम्मान देकर उनसे समायोजन बिठाने की कला सीखे जो नकारात्मक हैं, विषैली हैं। रिश्तों का उल्लास सावन में ही रक्षा बंधन जैसा महापर्व आता है । यह भाई -बहन के पावन रिश्तों को और भी अटूट बनाता है, उन्हें एक -दूसरे के प्रति कर्तव्यों और प्रेम का स्मरण कराता है। बाजार भी गुलजार सावन जब सभी के लिए है तो बाजार के लिए भी । रक्षा बंधन बाजार के लिए सबसे बड़ा त्यौहार होता है। इसी दौर में मिठाई और चॉकलेट बनाने वाले ब्रांड अपने नए उत्पाद बाजार में लाते हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक सिर्फ रक्षा बंधन के मौके पर ही देश भर में पचास हजार करोड़ का व्यवसाय होता है। कुछ जरूरी बातें दरअसल सावन एक ऋतु के साथ-साथ एक एहसास का नाम भी तो है। यदि एहसास ही न रहें तो कितनी भी मोहक ऋतु क्यों न हो उसका कोई प्रभाव हम पर नहीं पड़ेगा। आपा-धापी भरे, भागमभाग भरे इस जीवन में यही हो रहा है। हमारे एहसास खो रहे हैं। शायद इसीलिए जाने-अनजाने हम उन चीजों को भी क्षति पहुंचा रहे हैं जो जीवन के असाधरण सौंदर्य के प्रेरक और पोषक इस माह के लिए जरूरी हैं। पर्यावरण का विनाश इनमें से एक है। वृक्ष हैं तो बारिश है, बारिश की नजाकत है तो सावन है। यदि हम चाहते हैं कि हमारी पीढ़ियां हमसे सावन की परिभाषा न पूछें बल्कि हमारी ही तरह उसके अमृत का रसास्वादन करें तो यह पहल हमें करनी ही होगी कि हम अपने पर्यावरण को संरक्षित करने के आत्मीय प्रयास करें। इसी सावन में पौधरोपण कर यह शुरूआत की जा सकती है, यह प्रकृति के आनंद में हमारी भी सहभागिता होगी।

राहुल के बहाने झांकिए अपने गिरेबान में

बाजार का दखल जिंदगी में कितना बढ़ गया है। एक वक्त था जब बाजारों में जिंदगी जीने के सामान बिका करते थे लेकिन अब जिंदगी की सारी खूबसूरती बिक रही है। इससे हजार कदम आगे का वीभत्स सच यह है कि जो समाज में कभी सबसे ज्यादा निंदित था,त्याज्य था वह सबसे आकर्षक आवरणों में इतनी ठसक के साथ बिक रहा है कि बाकी सब शर्मिंदा हो जाएं। टीवी पर एक कार्यक्रम आया-राहुल दुल्हनिया ले जाएगा। यह वही राहुल था जिसने अपने पिता के पीए के साथ भारी मात्रा में नशा किया और मौत के मुंह से वापस आया। इस घटना में उसके यशस्वी पिता प्रमोद महाजन के पीए की जान चली गई। बाद में यह शख्स अपने बचपन की दोस्त के साथ शादी और फिर उसे पीटने और तलाक लिए जाने की खबरों के लिए चर्चाओं में रहा। हर स्थिति में लोगों ने, खासकर महिलाओं ने उसे जी भर कर कोसा और ऐसा पति किसी को न मिले जैसी बातें भी की। यह सब हुए ज्यादा वक्त नहीं गुजरा था कि यही राहुल रातों-रात लड़कियों का चहेता बन गया। उसने खुद अपनी डरावनी छवि से बाहर निकलने के लिए पैसा लगा कर एक रियलिटी शो का आयोजन करवाया। इस शो के जरिए इस बदमिजाज शख्स को इस तरह प्रस्तुत किया गया जैसे इससे बढ़कर आदर्श पति तो किसी भी लड़की के लिए हो ही नहीं सकता । प्रायोजित तरीके से इस शो और राहुल महाजन की चर्चा टीवी, अखबारों और एफ एम में होने लगी। ऐसा लगने लगा जैसे कोई देवदूत धरती की कन्याओं को धन्य करने आया है। कई-कई लड़कियां इस स्वयंवर में शामिल हुंई पर इसे जीता डिम्पी नाम की एक बंगाली बाला ने जो एक मॉडल भी थी। ताजा खबर यह है कि राहुल ने देर रात डिंपी के साथ मारपीट की और उसने राहुल का घर छोड़ दिया। यह बाजार की प्रायोजित चमक के उतर जाने के बाद का सच था। कोई ताजुब्ब नहीं कि वे महिलाएं जो अभी कुछ ही दिन पहले तक राहुल के स्वयंवर में गजब की रूचि दिखा रहीं थीं वही एक बार फिर उसे गाली बकती,कोसती दिखाई देने लगें। इससे भी ज्यादा ताज्जुब की बात यह हो सकती है कि राहुल के स्वयंवर का सीजन टू आयोजित हो जाए और उसमें भी बढ़-चढ़कर लड़कियां हिस्सा लें और फिर अभी जिन जबानों से निंदा की बरसात हो रही है वे ही राहुल की तारीफों के कसीदे पढ़ने लगें। दरअस्ल यह मूल्यहीनता के उत्सव में तब्दील हो जाने का दौर है। बाजार की अनिवार्य शर्त हो गई है अब मूल्यहीन होना। मूल्यहीनता में आकर्षण है, चर्चा में बने रहने के तत्व हैं और मूल्यहीनता ही बिकाऊ है। जो बिकता है बाजार उसी पर अपना दांव लगाता है। कुछ समय पहले इसी मूल्यहीनता को सच का लिबास पहनाकर सच का सामना शो के माध्यम से बेचा गया था। वे लोग जो राहुल महाजन जैसे लोगों को पसंद करते हैं उन्हें अपनी बच्ची को परेशान करने वाले उसके पति को सजा देने या उसकी निंदा करने का अधिकार नहीं रह जाता । हम गलत के खिलाफ यदि कसमसाते हैं तो यह अपने आपमें उम्मीद जगाता है। लेकिन यह भी हमें ही तय करना है कि हम गलत के खिलाफ कितनी देर तक खड़े रहते हैं। यदि हम सिर्फ गलत को गलत कहकर ही संतुष्ट हो जाते हैं तो कहीं न कहीं यह गलत आहिस्ता से हमारे जीवन का हिस्सा बन जाता है और हम कब अनजाने ही उसके समर्थक हो जाते हैं हमें पता ही नहीं चलता। ऐसा होने पर हम स्वाभाविक रूप से गलत के विरोध का अधिकार खो देते हैं। राहुल प्रकरण के बहाने समाज को और इसके एक अहम हिस्से मीडिया को अपने गिरेबान में झांककर देखने की कोशिश करनी चाहिए। धीरेंद्र शुक्ल

ठंडा रखें दिमाग

गुस्सा सेहत के लिए अच्छा नहीं है, इसे काबू में रखना चाहिए, ये और ऐसी ही कई नसीहतें आपने अपने बुजुर्गों से सुनी होंगी। शायद ही आपने कभी इन पर गंभीरता से ध्यान दिया हो। लेकिन कॉलेज तक तो ठीक है पर उसके बाद जब आप जॉब के लिए जाते हेैं या जॉब करने लगते हैं तब यह कतई ठीक नहीं है। आप यह कह सकते हैं कि आपको हमेशा गुस्सा तब आता है जब कोई गलत बात करता है, यह बात आपको कहीं न कहीं संतोष भी देती है। इस अच्छी तरह समझ लें। इसमें कोई शक नहीं कि गलत बात का विरोध हर जागरुक और जमीर वाले आदमी को करना ही चाहिए लेकिन विरोध और क्रोध में फर्क है। विरोध बेहद शालीन और संयत ढंग से भी किया जा सकता है। भारत की क्रांति के इतिहास में भला भगत सिंह से ज्यादा मुखर विरोध करने वाला युवा कोई हुआ है! लेकिन वे भी गुस्सैल नहीं थे। उनका कहना था कि युवाआें का खून गर्म और दिमाग शांत होना चाहिए। आज यही बातें कॅरियर के लिए आपका मार्गदर्शन कर सकती हैं। जब आप जॉब में हैं तो कई बार ऐसे मौके आएंगे जब आपकी सलाह एकदम सही और तार्किक होगी पर आपका कोई कलीग इसे पूरी तरह नजरंदाज कर सकता है, बॉस भी ऐसा ही कर सकता है। ऐसे में आपको गुस्सा आ जाए तो यह सामान्य सी बात है लेकिन यहीं आपको सावधान हो जाना चाहिए। दरअसल जो जितना सही है उसे उतना ही शांत रहना चाहिए। शांत रहने से आपकी बात थोड़ा वक्त भले ले लेकिन ज्यादा देर तक और ज्यादा दूर तक सुनाई देती है। यदि आफिस में किसी गलत बात का विरोध आपने गुस्से में कर दिया तो जो लोग ऐसी किसी बात के पक्ष में हैं वे सब मिलकर सिर्फ आपके व्यवहार को मुद्दा बना लेंगे और ऐसे में आपका विरोध जायज है ये बात किनारे कर दी जाएगी। सब मिलकर यही कहेंगे कि देखो इसने ऐसा बर्ताव किया। टिप्स -जब आपकी किसी तर्क संगत का विरोध आपके सहयोगी तर्कहीन आधार पर करें तो, ओशो का जीवन मंत्र है कि उन पर क्रोध नहीं दया करो। आप ध्यान रखिए कि वे ज्यादा देर तक टिक नहीं पाएंगे, क्योंकि कोई भी कंपनी ऐसे एम्पलाई को जान-बूझकर देर तक तवज्जो नहीं दे सकती जिसकी बातों का तार्किक आधार न हो। -शालीनता और कायरता में फर्क होता है। जिसके भीतर सच की आंच को संभालने की ताकत है वही देर तक शालीन और शांत रह सकता है। इसलिए यदि आपको लगता है कि किसी संदर्भ विशेष में आप बिलकुल सही हैं तो गुस्सा करके अपनी बात का वजन कम मत करिये। -जिन साथियों से आपके मतभेद हैं उनसे भी अपने व्यवहार में मिठास बनाए रखिए,कड़वाहट मत आने दीजिये। आखिर आपको उन्हीं लोगों के बीच काम करना है ऐसे में कोई बात दिल पर लेकर, गांठ बांधकर रखेंगे तो काम करना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए बी कूल एंड गो अहेड।

जल चिंतन:संस्कृति का महत्वपूर्ण तत्व है जल संरक्षण

जल के प्रति हमारे यहां शुरू से ही एक तरह की चेतना, सजगता दिखाई देती है। पौराणिक आख्यान इस बात का प्रमाण हैं कि हमारे पूर्वज जल के प्रति अत्यंत संवेदनशील और दूरदर्शी थे। संभवत: इसीलिए पुराणों में भूतभावन भगवान शिव के जिन रूपों की चर्चा की गई है उनमें एक रूप जल भी है। इस बात के धार्मिक आधार तो हैं ही लेकिन इसके पीछे एक सामाजिक आधार भी है। हमारी संस्कृति में शिव का विशिष्ट स्थान है, वे सर्वपूज्य हैं, आदिदेव हैं इसलिए यदि जल उनका स्वरूप है तो हमें उनके इस स्वरूप का , जल का सम्मान करना होगा, उसके प्रति मितव्ययी दृष्टिकोण अपनाना होगा, यही इस पौराणिक आख्यान का सामाजिक निहितार्थ है। जीवन की छोटी -छोटी बातों में हमारी संस्कृति के मोहक रुप दिखाई देते हैं। लेकिन आपा-धापी के कारण हम उनके वास्तविक अर्थ को समझने से वंचित रह जाते हैं। हमारी संस्कृति का ऐसा ही एक रुप हैं कुंए और बावड़ियां। हमारे पूर्वज इनका निर्माण कराते थे। राजा-महाराजा जनता को जल की बेहतर उपलब्धता के लिए इन्हें बनवाते थे। जिनके पुराने मकान हैं उनके यहां कुआं जरूर मिल जाएगा। यह अलग बात है कि अब प्राय:लोग इन कुंओं में मोटर लगाकर उनके पानी का इस्तेमाल करते हैं, बहुत सी जगहों पर कुंओं को ढंक दिया जाता है। आज चारों तरफ मची जल की त्राहि-त्राहि का एक कारण और इसका सहज समाधान इन स्थितियों में देखा जा सकता है। यह मानवीय पृवत्ति है कि उसे जब कोई चीज सहजता से उपलब्ध होती है तो वह उसके प्रति लापरवाह हो जाता है। कुछ दोहे मनुष्य की इसी पृवत्ति की ओर इंगित करते हैं, जैसे- अति परिचय से होत है बहुत अनादर भाय/मलयागिर की भीलनी चंदन देत जराय। इस दोहे मे ंअतिपरिचय का एक अर्थ सहज उपलब्धता भी तो है। जल के प्रति हमारे यहां शुरू से ही एक तरह की चेतना, सजगता दिखाई देती है। पौराणिक आख्यान इस बात का प्रमाण हैं कि हमारे पूर्वज जल के प्रति अत्यंत संवेदनशील और दूरदर्शी थे। संभवत: इसीलिए पुराणों में भूतभावन भगवान शिव के जिन रूपों की चर्चा की गई है उनमें एक रूप जल भी है। इस बात के धार्मिक आधार तो हैं ही लेकिन इसके पीछे एक सामाजिक आधार भी है। हमारी संस्कृति में शिव का विशिष्ट स्थान है, वे सर्वपूज्य हैं, आदिदेव हैं इसलिए यदि जल उनका स्वरूप है तो हमें उनके इस स्वरूप का , जल का सम्मान करना होगा, उसके प्रति मितव्ययी दृष्टिकोण अपनाना होगा, यही इस पौराणिक आख्यान का सामाजिक निहितार्थ है। इसी संदर्भ में यह भी चिंतन का विषय है कि आज हम जल के अपव्यय को रोकने और उसके संवर्धन के यथा संभाव उपायों पर जोर दे रहे हैं। यदि हम कुंओं और बावलियों पर विचार करें तो एक बात साफ दिखाई देती है कि इनके निर्माण से ये दोनों ही बातें अपने आप पूरी हो जाती थीं। जब कोई श्रम करके, कुंए या बावड़ी से पानी खींच कर लाता है तो उसकी कोशिश होती है कि पानी की एक-एक बूंद का सही उपयोग हो। वह नहाता है तो हो सकता है घर में लगे नल से कई -कई बाल्टी पानी बहा दे लेकिन इस मामले में ऐसा नहीें हो सकता । कुंए और बावड़ियों में वर्षा जल का पर्याप्त संग्रह हो जाता है। जो साल भर की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त होता है। कुछ प्रदेशों की सरकारों ने मकान बनाने के लिए जलसंवर्धन की व्यवस्था करना अनिवार्य कर दिया है अन्यथा वहां मकान का नक्शा पास नहीं किया जाएगा ऐसी व्यवस्था कर दी गई है। लेकिन इस व्यवस्था का , इस कानून का पालन नहीं किया जाता। इस बारे में हम एक बात देख सकते हैं कि पहले हमारे आस-पास की अधिकतर जगहें पक्की यानि सीमेंट से बनी नहीं होतीं थीं। इससे बारिश का जल कम मात्रा में ही सही धरती के भीतर जाता था। घरों में कुंए होते थे और उनके चारों ओर की जगह भी सीमेंटेड नहीं होती थी। इससे भी पानी की कुछ मात्रा धरती के अंदर जाती थी और कुंओं का जलस्त्रोत जीवंत बना रहता था। भूजल स्तर में आई गिरावट का एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारे आस-पास से कच्ची, मिट्टी और मुरूम वाली जगहें खत्म हो गई हैं। चैन्नई नगर निगम ने इस बात का महत्व समझते हुए नालियों के निर्माण की तकनीक में संशोधन किया है। वहां नालियों के ऊपरी भाग और उसके भीतर दोनो ओर का कुछ भाग तो पक्का होता है लेकिन उसका आधार कच्चा रखा जाता है। ऐसा इसलिए किया गया है कि नालियों के माध्यम से जल की कुछ मात्रा धरती के अंदर जाती रहे। सारे देश में नाली निर्माण में जिस तकनीक का उपयोग किया जाता है उसमें आधार भी कांक्रीट से बना होता है। इससे जल भूमि के भीतर नहीं पहुंच पाता। चैन्नई जैसे विकसित शहर में इस तरह का उपयोग हमारे पूर्वजों की दूरदर्शी सोच का स्वीकार ही है। एक और बात इस दिशा में दिखाई देती है। हमारे पौराणिक आख्यान हैं कि यदि किसी मृत व्यक्ति के नाम पर कुंए या बावड़ी का निर्माण करा दिया जाए तो जब तक ये जल संसाधन जीवित रहते हैं दिवंगत व्यक्ति की आत्मा को तृप्ति और शांति प्राप्त होती रहती है। इस समय में, जबकि हालात मुश्किल से मुश्किल होते जा रहे हैं और किसी ने कहा है कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा तब यह बेहद जरूरी है कि हम अपनी छोटी सी सही लेकिन सार्थक कोशश कर पानी का संरक्षण करें। कुंओं को उनके स्वाभाविक रूप में इस्तेमाल करें ताकि जल अपव्यय की पृवत्ति पर थोड़ी ही सही पर कमी आ सके। अपने गार्डन और घर के आस-पास की जितनी जगह को हम मुरूम वगैरह डालकर उसके कच्चेपन में ही व्यवस्थित रख सकें उतना अच्छा। इससे भूजल स्तर बनाए रखने में मदद मिलेगी। यह भी सोचें कि हम लाखों रुपए खर्च कर मकान बनाते हैं और धरती से बेतहाशा जल शोषण करते हैं पर उसे एक बूंद भी नहीं लौटाते, यह अपने आप में हद दर्जे की कृतघ्नता है। इससे बाहर आने के लिए अपने मकान के निर्माण के समय वाटर हार्वेस्टिंग का इंतजाम अनिवार्य रूप से करें ।

जश्न के बीच कुछ उदास बातें

अब यह सर्वमान्य रस्म हो गई है कि देश के बारे में सिर्फ दो दिन ही बात की जाए-पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को। वैसे आम -आदमी हर रोज देश के बारे में बात करता है और कई-कई बार करता है। जब महंगाई के कारण दो वक्त की रोटी का जुगाड़ बहुत मुश्किल लगने लगता है -तब, जब भ्रष्टाचार के कोड़ोें से उसका दिल ओ दिमाग लहूलुहान हो जाता है-तब और ऐसे ही कितने दूसरे मौकों पर । तब वह इस देश के बारे में गौरवबोध से भरा नहंीं होता, उसके जहन और जुबान में जहर घुला होता है। देश के अधिकतर आदमी इसी तरह देश को याद करते हंै, रोज, हर वक्त। लेकिन जिन्हें साल में सिर्फ दो बार देश की याद आती है उनके साथ ऐसा नहीं है, उन्हें यह याद बड़े झमाके के साथ आती है। इसके अपने रोमांच हैं। देश का नाम सुनते ही इन दो दिनों में उनकी बांछें खिल जाती हैं। आखिर यही तो वह देश है जिसे वे नोंच-नोंचकर खा रहे हैं। यही तो वह देश है जहां काम हुए बिना ही करोड़ों के बिल पास होते हैं, जहां सड़ने के लिए हजारों टन अनाज खुले में रखा रहता है पर इसे हासिल करने के लिए गरीबों को पहले इस बात के लिए खटना पड़ता है कि वे खुद को गरीब कैसे सिद्ध करें, तब भी यह उन्हेंं मुफ्त में नहीं मिलता। सरकारी अस्पतालों में उनके साथ कीड़े-मकोड़ों सा व्यवहार किया जाता है। देर रात को मजदूरी करके या अस्पताल से किसी अपने को देखकर लौटते वक्त इसी गौरवशाली देश में तो आम आदमी को पुलिस के डंडे खाने पड़ते हैं और अजमल कसाब तथा अफजल गुरु जैसे वहशी दरिंदे फाइव स्टार होटल जैसी सुविधाआें के साथ रहते हैं, उन पर सरकारी खजाने से करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं। यानि यही वह देश है जो उनकी मर्जी से चलता है। यही वह देश है जहां के प्रधानम्ांत्री सर्वशक्तिमान हैसियत में होने के बाद भी महंगाई कम करने की कोशिशें करने के बजाय आम आदमी के सामने आंकड़ों का तिलिस्म खड़ा कर उसकी भूख को बेमानी सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। यही वह देश है जहां हर खौफनाक असलियत झूठ और हर चमकदार झूठ सच सिद्ध कर दिया जाता है। स्वाधीनता दिवस पर सच सिद्ध कर दिए गए ऐसे ही झूठे जश्न का सबब बनते हैं और उनपर इतराकर बयानबाजी की जाती है। 64 वें स्वाधीनता दिवस पर इन हालात का जिक्र भी तो जरूरी है। अखबार और दूसरे तमाम प्रसार माध्यम साल भर आजाद देश के मुर्दा हो जाने और आजादी के क्षत-विक्षत हो जाने की खबरें छापते हैं तो फिर इस एक दिन ही असलियत से मुंह क्यों मोड़ा जाए। दरअसल यह गौरवगाथा के गर्दभगायन का नहीं, किसी एक दिन ही सही अपने होने का एहसास कराने का वक्त होता है। इसी एक दिन संगठित होकर हर तरह की लूट के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत सामने आनी चाहिए। जो विलाप हर वक्त होता रहता है उसे आज के दिन गर्जन में बदलना चाहिए और साल दर साल उसका असर ऐसा होना चाहिए कि रोज-रोज का रोना कम से कम हो, जिंदगी में जिंदगी की आहट सुनाई देने लगे। जमीर की उम्मीद अब किससे की जाए , पर जिन्हें भी लगता है कि उनके भीतर यह धड़कता हुआ मौजूद है और वे इन हालात को बदलने में कुछ कर सकते हैं उन्हें कुछ न कुछ जरूर करना चाहिए। बेशक संगठित मक्कारी ताकतवर हो सकती है लेकिन आम आदमी के छिटपुट प्रयास भी उसको चुनौती दे सकते हैं। जन,गण,मन की गगनचुंबी आवाजों के बीच इन जरूरी बातों की सुगबुगाहट भी जरूर होनी चाहिए।