Wednesday, September 1, 2010
जश्न के बीच कुछ उदास बातें
अब यह सर्वमान्य रस्म हो गई है कि देश के बारे में सिर्फ दो दिन ही बात की जाए-पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को। वैसे आम -आदमी हर रोज देश के बारे में बात करता है और कई-कई बार करता है। जब महंगाई के कारण दो वक्त की रोटी का जुगाड़ बहुत मुश्किल लगने लगता है -तब, जब भ्रष्टाचार के कोड़ोें से उसका दिल ओ दिमाग लहूलुहान हो जाता है-तब और ऐसे ही कितने दूसरे मौकों पर । तब वह इस देश के बारे में गौरवबोध से भरा नहंीं होता, उसके जहन और जुबान में जहर घुला होता है। देश के अधिकतर आदमी इसी तरह देश को याद करते हंै, रोज, हर वक्त। लेकिन जिन्हें साल में सिर्फ दो बार देश की याद आती है उनके साथ ऐसा नहीं है, उन्हें यह याद बड़े झमाके के साथ आती है। इसके अपने रोमांच हैं। देश का नाम सुनते ही इन दो दिनों में उनकी बांछें खिल जाती हैं। आखिर यही तो वह देश है जिसे वे नोंच-नोंचकर खा रहे हैं। यही तो वह देश है जहां काम हुए बिना ही करोड़ों के बिल पास होते हैं, जहां सड़ने के लिए हजारों टन अनाज खुले में रखा रहता है पर इसे हासिल करने के लिए गरीबों को पहले इस बात के लिए खटना पड़ता है कि वे खुद को गरीब कैसे सिद्ध करें, तब भी यह उन्हेंं मुफ्त में नहीं मिलता। सरकारी अस्पतालों में उनके साथ कीड़े-मकोड़ों सा व्यवहार किया जाता है। देर रात को मजदूरी करके या अस्पताल से किसी अपने को देखकर लौटते वक्त इसी गौरवशाली देश में तो आम आदमी को पुलिस के डंडे खाने पड़ते हैं और अजमल कसाब तथा अफजल गुरु जैसे वहशी दरिंदे फाइव स्टार होटल जैसी सुविधाआें के साथ रहते हैं, उन पर सरकारी खजाने से करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं। यानि यही वह देश है जो उनकी मर्जी से चलता है। यही वह देश है जहां के प्रधानम्ांत्री सर्वशक्तिमान हैसियत में होने के बाद भी महंगाई कम करने की कोशिशें करने के बजाय आम आदमी के सामने आंकड़ों का तिलिस्म खड़ा कर उसकी भूख को बेमानी सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। यही वह देश है जहां हर खौफनाक असलियत झूठ और हर चमकदार झूठ सच सिद्ध कर दिया जाता है। स्वाधीनता दिवस पर सच सिद्ध कर दिए गए ऐसे ही झूठे जश्न का सबब बनते हैं और उनपर इतराकर बयानबाजी की जाती है। 64 वें स्वाधीनता दिवस पर इन हालात का जिक्र भी तो जरूरी है। अखबार और दूसरे तमाम प्रसार माध्यम साल भर आजाद देश के मुर्दा हो जाने और आजादी के क्षत-विक्षत हो जाने की खबरें छापते हैं तो फिर इस एक दिन ही असलियत से मुंह क्यों मोड़ा जाए। दरअसल यह गौरवगाथा के गर्दभगायन का नहीं, किसी एक दिन ही सही अपने होने का एहसास कराने का वक्त होता है। इसी एक दिन संगठित होकर हर तरह की लूट के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत सामने आनी चाहिए। जो विलाप हर वक्त होता रहता है उसे आज के दिन गर्जन में बदलना चाहिए और साल दर साल उसका असर ऐसा होना चाहिए कि रोज-रोज का रोना कम से कम हो, जिंदगी में जिंदगी की आहट सुनाई देने लगे। जमीर की उम्मीद अब किससे की जाए , पर जिन्हें भी लगता है कि उनके भीतर यह धड़कता हुआ मौजूद है और वे इन हालात को बदलने में कुछ कर सकते हैं उन्हें कुछ न कुछ जरूर करना चाहिए। बेशक संगठित मक्कारी ताकतवर हो सकती है लेकिन आम आदमी के छिटपुट प्रयास भी उसको चुनौती दे सकते हैं। जन,गण,मन की गगनचुंबी आवाजों के बीच इन जरूरी बातों की सुगबुगाहट भी जरूर होनी चाहिए।
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