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Monday, September 27, 2010

शिक्षा के सबक बेचतीं परचून की दुकानें

कवि मैथलीशरण गुप्त ने करीब पांच दशक पहले कहा था- शिक्षे तुम्हारा नाश हो, तुम अर्थ का साधन बनी। वे आज होते तो क्या करते और क्या कहते? शिक्षा में बाजार के घुसपैठ की आहट उन्होंने पचास साल पहले सुनी थी और आज हालत यह है कि बाजार ने शिक्षा को उसके ही घर से बेदखल कर दिया है। शिक्षा के सारे सूत्र और संभावनाएं बाजार के हाथ में हैं। संस्कारों और मूल्यों की बातें करना यहां अब दकियानूस होने की निशानी बन गया है । जब सभी कुछ बाजार का है तो जाहिर है कि भाषा और चरित्र भी बाजार का ही है। जिसे कभी शिक्षा का मंदिर कहा जाता था, वे शालाएं इसीलिए अब शिक्षा की दुकानें हैं। जब दुकानें हैं तो उन्हें चलाने वाले भी खासे दुकानदार ही हैं। पहले स्कूल चलाने के लिए जरूरी होता था कि संचालक की मंशा पवित्र हो, वह अपनी पीढ़ी को जीवन मूल्योें के साथ स्तरीय शिक्षण की सामर्थ्य भी रखता हो। अब चूंकि सवाल दुकान का है इसलिए यहां का गणित दूसरा है। बेहतरीन बिजनेस वाले स्कूल के लिए जरूरी है कि कम से कुछ एकड़ों या बीघों की जमीन हो, इस जमीन पर किसी मल्टीप्लैक्स सी दिखने वाली इमारत बनवाने के लिए कुछ करोड़ रुपये हों,एकाध दर्जन बसें हों और विज्ञापन के लिए ढेर सारा फं ड अलग। जाहिर है यह किसी आम आदमी के बूते की बात नहीं है इसलिए जिनकी तिजोरियां धन की हजार धाराओं की मिलन स्थली बन गई हैं ऐसे भू माफिया, राजनेता,ठेकेदार, धर्म के ठेकेदार और इसी जमात के दूसरे तमाम लोग स्कूल के धंधे में हैं। जब स्कूलों के मामले में हालात ऐसे हैं तो अनुमान लगाया जा सकता है कि कॉलेजों को लेकर क्या स्थिति होगी। हाल ही में आगरा में इनकम टैक्स विभाग ने शारदा ग्रुप आॅफ इंस्टीट्यूशन्स,जीएल बजाज और सुनील गलकोटिया ग्रुप के यहां छापा मारकर करीब 200 करोड़ रुपए की बेनामी संपत्ति उजागर की है। ये ग्रुप इंजीनियरिंग,मेडिकल और मेनेजमेंट के कोर्सेस चलाते हैं। यह एक बहुत ही छोटी सी घटना है। पूरे देश के हर छोटे बड़े शहर में दर्जनों की तादाद में ये कोर्सेस चलाने वाले कॉलेज धड़ाधड़ खुल रहे हैं। एक वक्त था जब इंजीनियर, डाक्टर बनना अपने आप में सामाजिक रुप से बड़ी प्रतिष्ठा की बात होती थी। इसके कारण भी थे। तब एक बात यह तय मान ली जाती थी कि इस तरह की डिग्री हासिल करने वाला व्यक्ति योग्यता की कसौटी पर खरा है। उसे इसका पारितोष भी मिलता था। सरकारी नौकरी तो उसे मिल ही जाती थी। अब ऐसा नहीं है। इंजीनियरिंग के लिए टेस्ट अभी भी होते हैं लेकिन सबकी सिर्फ औपचारिकताएं हैं। थोड़े बहुत अंक हासिल करने वाले को भी किसी न किसी फिसड्डी कालेज में एडमीशन मिल ही जाता है, बस उसकी फीस चुÞकाने की हैसियत होनी चाहिए। मेडिकल का क्षेत्र तो सबसे ज्यादा बदत्तर बना दिया गया है। महाराष्टÑ में दशकों से ऐसे कॉलेज चल रहे हैं जो बीस-बीस लाख रुपए लेकर बिना स्पर्धा के एडमीशन दे देते हैं। खास बात यह है कि शिक्षा की बड़ी दुकानों के संचालकों ने ऐसे -ऐसे नारे गढ़ दिए हैं कि उनकी चमक में असलियत दिखाई ही नहीं देती। सिविल इंजीनियरिंग से बीई की डिग्री लेने वाले दर्जनों युवक -युवतियों को किसी बिल्डर के यहां आज के दौर की बहुत मामूली सी तनख्वाह पर नौकरी करते देखा जा सकता है। एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि सरकार को जितने इंजीनियर्स हर साल चाहिए उससे करीब दोगुने हर साल पास आउट हो रहे हैं। यह एक सच है जो कभी सामने नहीं लाया जाता। मेडिकल में स्थितियां दूसरी हैं। यहां सरकारी मांग ज्यादा है लेकिन यह ऐसा काम है जो चाहे जहां बैठकर शुरु किया जा सकता है, बिना खास लागत के इसलिए इसके पढ़े विद्यार्थी सरकारी नौकरी में जाना नहीं चाहते, जाहिर है मोटी रकम देकर डिग्रियां लेने वाला उसकी कीमत आम आदमी से वसूल करने के लिए घात लगाए बैठा रहता है। बाजार के इस खेल में जो नुकसान हो रहा है उसकी तरफ सरकारों का ध्यान नहीं है। अब उच्चशिक्षा की उपलब्धता तो बढ़ी है, उसका मात्रात्मक विस्तार तो हुआ है लेकिन उसकी गुणात्मकता खो रही है। शायद इसीलिए कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स और नोबेल विजेता रामकृष्णन जैसी प्रतिभाओं का निखार और विस्तार भारत में नहीं हो पाता और ऐसे नाम भारतीय मूल के भले हों भारत के नहीं हो पाते। आंकड़ों के आइने में भी यह बात साफ दिखाई देती है। भारत ने आजादी के बाद से उच्च शिक्षा में जबर्दस्त प्रदर्शन किया है। 1947 में भारत में कुल 18 विश्वविद्यालय और 518 महाविद्यालय थे जिनमे 2,28,881 विद्यार्थी पढ़ते थे और उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या थी 24000। साल 2009 तक यह स्थिति पूरी तरह बदल गई आौर विश्वविद्यालयों की संख्या हो गई 518, और महाविद्यालय हो गए25951 । इनमें एक करोड़ छत्तीस लाख बयालीस हजार विद्यार्थी पढ़ रहे थे और उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या थी 5,85,000। यह उच्च शिक्षा का विस्तार था लेकिन इसकी गुणवत्ता कितनी निखरी इसकी तस्वीर थामस रायटर द्वारा कराए गए एक सर्वे के निष्कर्ष में साफ देखी जा सकती है। इसमें कहा गया है कि भारत का उच्च और उच्चतर शिक्षा में सकल दाखिला अनुपात महज 11फीसदी है, जो विकसित देशों की तुलना में काफी कम है। अमेरिका में यह 83फीसदी है तो कोरिया में 91फीसदी। चीन, उच्च शिक्षा और शोध दोनों ही क्षेत्र में हमसे आगे हो गया है। वर्ष 1988-93 में शोध के क्षेत्र में चीन की हिस्सेदारी महज 1.5प्रतिशत थी लेकिन वर्ष 1999- 2008 में उसने इसमें जबर्दस्त सुधार करते हुए उसने इसे 6.2 फीसदी तक पहुंचा दिया। भारत की स्थिति उलटी रही साल 1988-93 में 2.5 फीसदी हिस्सेदारी के साथ भारत चीन से बेहतर स्थिति में था लेकिन साल 1999- 2008 में उसने नाममात्र की बढ़त हासिल की और यह आंकड़ा महल 2.6 तक ही पहुंच पाया। भारत के पूर्व राष्टÑपति डा.एपीजे अब्दुल कलाम ने अपने कार्यकाल में इसी बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया था कि विश्वविद्यालयों को अपनी शोध क्षमताओं का विस्तार करना चाहिए। लेकिन जिस देश के एक छोटे से प्रदेश में एक-एक कमरे में तीन दर्जन से ज्यादा विश्वविद्यालय खोल दिए गए रहे हों, जहां आज भी 21 विश्वविद्यालय फर्जी हों और जहां शिक्षा की गुणवत्ता को कोई मानक ही न हो वहां कलाम जैसे वैज्ञानिकों की हसरतें भला कैसे पूरी हो सकती हैं?

Sunday, September 26, 2010

शहरयार को ज्ञानपीठ सम्मान

उर्दू के बेमिसाल शाइर कुंअर अखलाक मुहम्मद खान ‘शहरयार’ को 44 वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई है। वे यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले उर्दू के चौथे शायर हैं। उन्हें इस पुरस्कार से सम्मानित किए जाने के कई मायने हैं। यह एक शाइर और उसके रचनाकर्म का सम्मान तो है ही इसके अलावा भी बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनका मूल्यांकन शहरयार को इस पुरस्कार का सहज अधिकारी बनाता है। उनके गीत, गजल और नज्में साहित्य और आम पाठक के बीच एक गहरा रिश्ता कायम करती हैं। उनका ताल्लुक समाज के हर वर्ग से रहा है, उनसे भी जो हर तरह के साहित्यिक संस्कारों से दूर रहते आए हैं। यह उनके रचनात्मक कौशल का ही करिश्मा है कि उमराव जान की गजलें करीब ढाई दशक का लंबा फासला तय करने के बाद भी ऐसे ही आदमी की जुबान पर मचलती रहती हैं, फिजां में गूंजती रहती हैं। बदलते वक्त ने आदमी और समाज में जो एकाकीपन पैदा कर दिया है उसकी गूंज शहरयार की गजलों में बहुत पहले से सुनाई देती रही है। करीब तीन दशक पहले आई फिल्म गमन की यह गजल आज भी हर संजीदा जहन की वीरानियों में गूंजती है-सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यों है, इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है। एक और गजल फिल्म आहिस्ता-आहिस्ता के जरिए लोगों तक पहुंची- कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आसमाँ नहीं मिलता...। ये गजलें गंभीर हैं और इंसानी जज्बातों को बेहद खूबसूरती से नुमाया करती हैं। आमतौर पर आमदर्शक गंभीरता से परहेज करता है लेकिन शहरयार की ये और ऐसी ही गजलें इसलिए लोगों के दिलों में बसती हैं कि यह किसी फिल्म की नहीं, किसी शाइर की नहीं , उन्हें अपनी ही बात लगती हैं। इसी गजल की आखिरी पंक्ति है- तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो, जहां उम्मीद हो उसकी वहां नहीं मिलता। भला ऐसा कौन होगा जो अपनी जिंदगी में कहीं न कहीं , कभी न कभी इस सच्चाई से रू-ब-रू न हुआ हो। जिंदगी ऐसे ही तल्ख और तल्ख होती चली जाती है, ऐसे भी हालात हो जाते हैं कि इंसां के जिस्म में लहू की बजाय जहर दौड़ने लगता है- शहरयार की गजल का एक शेर है-इक बूंद जहर के लिए फैला रहे हो हाथ, देखो कभी खुद अपने बदन को निचोड़ के।

Friday, September 17, 2010

खो रहा रिश्तों का सौंदर्य

जीवन में लगातार बढ़ते संघर्षों से हमारे रिश्ते सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त हुए हैं। यह विचार और मूल्यों का नहीं बाजार का युग है। इसकी अपनी मांगें हैं जिनमें भावनाओं और संवेदनशीलता की गुंजाइश ही नहीं है। पहले ऐसा होता था कि जिन्हें ऐश्वर्यशाली, सर्वसुविधायुक्त जीवन की चाह रहती थी उन्हें इसका मूल्य चुकाना पड़ता था लेकिन अब इससे भी हजार कदम आगे औसत जीवन स्तर के लिए भी इसी तरही की कीमत चुकाना एक शर्त बनता जा रही है। हममें से अधिकतर लोग इस शर्त को पूरी भी कर रहे हंै। दिन-रात की भागदौड़ के बीच कहीं न कहीं हमारे जीवन का सौंदर्य खो गया है। हमारे रिश्तों के नाजुक फूल कुम्हला रहे हैं। जिंदगी में हर बात के लिए तो जगह बनती जा रही है,बस जिंदगी जीने की जगह शेष नहीं है। ऐसे परिवारों की संख्या में लगातार इजाफाा हुआ है जिनमें पति-पत्नी दोनों ही नौकरीपेशा हैं। दोनों के काम पर जाने और वापस आने का समय भी अलग-अलग है। कहीं-हालात ऐसे हैं कि दोनों की हफ्ते-हफ्ते तक बात नहीं हो पाती। ऐसे दंपत्तियों के बच्चे आधे-अधूरे रिश्तों के साथ बड़े होते हैैं। बच्चे हमेशा ही आकाश से रिश्ते चाहते हैं। उनका सुकोमल मन भावनाओं की स्निग्ध ओस से ही पलता-बढ़ता है। ऐसे दंपत्तियों के बच्चे इस ओस से , इस स्निगधता से वंचित रह जाते हैं। ऐसे लोगों का जीवन अपना स्वाद खोने लगता है, ऊब पैदा होने लगती है। इसका एहसास उन्हें भी होता है पर वे इसे समझने की बजाय, इस भीतरी खालीपन को भरने की बजाय बाहर के उपाय करने लगते हैं। विकल्प हर जगह मौजूद रहता है,बस उसे देखने के लिए सिर्फ नजर की ही नहीं साहस की भी जरूरत होती है। दरबसल विवशताएं उतनी भी नहीं होतीं जितनी हम समझ लेते हैं। विवशताओं की मारक जकड़न की एक वजह यह भी होती है कि हम अपनी बुनियादी जरूरतों की सही -सही शिनाख्त भी नहीं कर पाते। इसीलिए कुछ लोगों को लगने लगता है कि शान-ओ-शौकत भी हमारी जरूरत हैं। यह चिंतन अधिकांश लोगों के जहन में सिरे से गायब होता जा रहा है कि हमारी सारी फितरतें, सारी भागदौड़ किसलिए है? आखिर हमारे कुछ भी संग्रहित करने का मूल उद्देश्य यही तो है कि हम जीवन को आनंदमय बना सकें और उसका लुत्फ अपनों के साथ ले सकें। रिश्ते ही हमारी स्वादेंद्रिय हैं। इन्हीं के मार्फत हम हर लम्हे का, वक्त का मजा ले सकते हैं। जिंदगी के कितने रंग हैं जो आपने देखे हैं पर आपका बच्चे ने नहीं । आपने अपने माता-पिता की ऊंगलियां पकड़कर चलना सीखा होगा पर अपने बच्चे को ऊंगली पकड़ाकर चलाने का वक्त आपके पास नहीं है। आपने अपने दादा-दादी,नाना-नानी के साथ छुट्टियों का ढेर सारा वक्त गुजारा होगा, उनसे कहानियां सुनीं होंगी पर आपका बच्चा तो इन रिश्तों के बारे में खास कुछ नहीं जानता। कहानियां क्या होती हैं यह भी उसे नहीं पता! आपतो हर वक्त अपने मम्मी -पापा से स्कूल की बातें बताते थे, उनके साथ टीवी देखते थे,घूमने जाते थे पर आपके पास है इतना वक्त अपने बच्चों के लिए? शायद नहीं। आपके वाजिब से लगने वाले तर्क होंगे कि ‘‘क्या करें, चाह कर भी समय ही नहीं मिल पाता। अब नौकरी करें या बच्चों की इन बातो पर ध्यान दें’आप सिर्फ इन तर्कों के समर्थन में ही नहीं बल्कि आपने इन्हें अनिवार्य मान लिया है और आपकी नजर में इनका कोई विकल्प नहीं है। लेकिन वाकई क्या ऐसा ही है? सोचिए! घर की बैठक में आप बदलाव करते रहते हंै, कुछ चीजें यहां-वहां करते हैं, फिर जिंदगी में यह बदलाव क्यों नहीं ? अपनी वास्तविक जरूरतों के बारे में सोचिए और अपने रिश्तों को यदि कुछ देना चाहते हैं तो बुनियादी जरूरतों की आसानी से उपलब्धता के अलावा उन्हें वक्त दीजिए। कहते हैं समय ही सोना है। रिश्तों के लिए समय सोना नहीं हीरा है, सबसे कीमती ।

नारी मन की समर्थ चितेरी:उत्तमा

वक्त बेरंग होता है, लोग उसमें रंग भरते हैं-अपनी जिंदगी का। लोग बदलते हैं, पीढ़ियां बदलती हैं तो यह रंग भी धूसर होने लगते हैं, फिर इनकी जगह कोई नया रंग, कोई नई बात अपनी जगह बनाने लगती है। लेकिन इस चक्र में भी कुछ हिस्सा ऐसा होता है जो हमेशा सुरक्षित होता है। समय की शिलाओं पर कुछ रंग हमेशा ताजा रहते हैं और कुछ आवाजें हमेशा इसकी वादियों में गूंजती रहती हैं। कलाएं इसीलिए शताब्दियों के लंबे सफर के बाद भी महफूज रहती हैं। कला का यह शाश्वत स्पर्श, किसी भी कलाकार को गहरे समर्पण और सृजन से ही हासिल हो पाता है। सृजनात्मकता व्यक्ति से उत्पन्न होेकर समिष्टि को ,सारी कायनात को अपने आप में समेट लेती है और एक कलाकार की बात सारी दुनिया की बात हो जाती है। उत्तमा दीक्षित ऐसी ही कलाकार हैं जिनमें यह हुनर है और जिनका काम कला की शाश्वतता को छूता हुआ प्रतीत होता है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पैंटिंग एंड आर्ट्स डिपार्टमेंट में सीनियर लैक्चरर डा.उत्तमा का संबंध आगरा से भी रहा है। वे यहां के प्रतिष्ठित आगरा कालेज के कला संकाय में करीब पांच साल तक प्राध्यापक रहीं। उत्तमा ने इसी साल अप्रेल में पांच विविध विषयों पर अपनी पेंटिं सीरीज लांच की है। इनमें बनारस के घाटों पर नौ ,प्रकृति पर चौदह, भारतीय स्त्री पर सोलह और जयशंकर प्रसाद रचित महाकाव्य कामायनी पर आधारित श्रंखला में सात चित्र शामिल हैं। इसके अलावा स्वतंत्र विषय पर भी सात चित्रों का समावेश है। इनमें कामायनी पर आधारित चित्र श्रंखला सबसे ज्यादा चर्चाओं में है। इसका कारण सिर्फ इतना है कि उत्तमा ने इस सीरीज में मनु इड़ा और श्रद्धा की वही भावभंगिमाएं प्रदर्शित करने का साहस किया है जिनका वर्णन प्रसाद ने किया है। ये पेंटिंग एक सीमा तक प्रसाद के भावों को संप्रेषित करने में सक्षम हैं। उत्तमा का कहना है कि-‘‘मैने संघर्ष बहुत किया और उपेक्षा भी बहुत सही, मेरी यात्रा संघर्ष भरी रही है’’ उत्तमा के इसी संघर्ष ने उन्हें स्थापित मान्यताओं से, समाज से और वक्त से भी लड़ने का माद्दा दिया है। उनकी यह संघर्षपूर्ण यात्रा जितनी कठिन बाहर थी उससे ज्यादा दुरुह और तकलीफदेह भीतर। इससे उनकी एक नजर बनी, दृष्टि का विकास हुआ। स्त्री के हालात पर गजब का पाखंड एक कलाकार ने समाज में देखा है और शायद इसीलिए कहीं न कहीं उनके अचेतन में स्त्री का वह रुप, वह सच्चाई बहुत गहरे उतर गई है - तमाम चमकीले आकड़ों के बाद भी जिसकी हालत में कोई सुधार नहीं आता । जो घरों में सताई जा रही है, बंद है,जिसकी हसरतें बाहर आने के लिए छटपटा रही हैं। उत्तमा के बहुसंख्य चित्रों में ऐसी ही स्त्री कई -कई रुपों में सामने आती है। आम तौर पर बनारस के घाटों का जिक्र आते ही नजर में धार्मिक वातावरण कौंध जाता है, जिसमें मंदिर हैं, स्नान करते लोग और पंडे वगैरह हैं। लेकिन उत्तमा की बनारस के घाटों पर जो चित्र श्रंखला है उसमें ये सब नदारद हैं। यहां स्त्री की मुश्किलें उसके मनोभावों का चित्रण ही प्रमुख रुप से हुआ है। भारतीय स्त्री पर सबसे ज्यादा सोलह चित्रों का सृजन भी उनके मन की दशा की सार्थक अभिव्यिक्ति करता है। इन चित्रों में नारी मन संघर्ष उभर कर सामने आया है जो दर्शक के मन को भी अपने साथ ले जाता है, उसे छूता है। इन सोलह चित्रों में से छह तो सिर्फ इंतजार पर हैं। इनमें से पांच में प्रतीक्षा की पीड़ा आंखों से साफ झलकती है तो एक में अपने प्रिय के आने की खुशी का भाव भी है। इन्हीं चित्रों में उस जमाने से बचने की कोशिश करती स्त्री है , जिसकी नजरों में भी नाखून हैं। उत्तमा के चित्रों में रंग संयोजन विषय के मुताबिक है। उनके अधिकांश चित्र मन के गहरे अंधेरों को अभिव्यक्त करने के प्रयास हैं इसलिए इनका रंग संयोजन डार्क है। कहीं -कही जहां ऐसी स्थितियां नहीं हैं वहां हल्के रंगों का इस्तेमाल किया गया है। स्त्री श्रंखला के ही दो चित्रों में यही बात है तो माइ क्रिएशन सीरीज के चित्र में भी इसे देखा जा सकता है। धीरेंद्र शुक्ल

Wednesday, September 1, 2010

सावन में झरता है आनंद

सावन -यह शब्द सुनते ही मनमें कुछ मचलने सा लगता है। इसका जिक्र होते ही अपने भीतर किसी कोने में मुर्झाए पड़े सुख के क्षण जीवंत होकर मचलने लगते हैं। मनुष्य और प्रकृति का उल्लास,आनंद इस समय झर झर झर करता हुआ झरता रहता है। गर्मियों में सवाल से पूछते सूखे खड़े पेड़ मानो हरीतिमा की चादर ओढ़कर नाचने लगते हैं और वीरान समाधियों से दिखते विशाल पर्वतों में जीवन की लहर दौड़ती रहती है। युवाओं के लिए यह मस्ती का मौसम है तो घर-बार वाले सनातन धर्मावलंबियों के लिए यह धर्म की वैतरणी के साक्षात होने का समय । जिनके प्रिय उनसे दूर हैं उनके लिए इसकी बूंद -बूÞद आग लगाने वाली है तो जिनके प्रिय पास हैं उनके लिए इसकी एक -एक बूंद अमृत की तरह है। अपने हर रंग में , हर मिजाज में सावन आनंद घोलता दिखाई देता है। इस बार हम आपके ही साथ तय कर रहे हैं सावन का यह मस्ती भरा सफर- मस्ती भर है समां... चिलचिलाती धूप में जब प्रकृति और मनुष्य बुरी तरह झुलस जाते हैं तब सबकी आस यही रहती है कि कब बारिश आए और राहत मिले । आषाढ़ का माह आते ही यह आस पूरी होनी शुरू होती है,और जब सावन आता है तब गर्मी की जानलेवा बेचैनी की रही सही यादों को भी मन धो डालना चाहता है । अधिकांश युवा इस मौसम का जमकर मजा लेते हैं । वे अधिकतर अपने दोस्तों के साथ भीगते हुए लांग ड्राइव पर निकल जाते हैं या जहां -जैसा मौका मिले मस्ती के बहाने ढूÞढ लेते हैं। मौसम वैज्ञानिक दृष्टि से भी मानसून अब तक पूरी तर सक्रिय हो जाता है। सब के लिए मनभावन सावन की दूसरी तमाम खासियतों, नजाकतों के अलावा एक खासियत यह भी होती है कि यह बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सभी को अच्छा लगता है, बहुत अच्छा लगता है। बचपन की सबसे ज्यादा सरस स्मृतियां शायद इसी से जुड़ी होती हैं। सुदर्शन फाकिर की एक नज्म है- ये दौलत भी ले लो ,ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी/मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन /वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी। सावन में सड़कों पर भीगते -दौड़ते बच्चों को देखकर उदासी दूर हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे जीवन पूरे वेग से खिलखिला रहा है। बचपन का ऐसा उल्लास , ऐसा रंंग किसी और ऋतु में दिखाई नहीं देता । ्र्रप्रकृति का यौवन सावन प्रकृति का यौवन है, जवानी है। इसीलिए यह अकारण नहीं है कि इसे काम ऋतु भी कहा जाता है। काम शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है इसका अर्थ कामना भी है और सृजन की उत्कंठा भी। इसलिए इस ऋतु का असाधारण प्रभाव पड़ता है । इस ऋतु में जैसे आयोजन होते हैं वैसे और कभी नहीं होते । इसी ऋतु में आम के पेड़ों पर झूले पड़ते हैं और उनमें यौवनाएं झूलती हैं । ऐसा लगता है मानो प्रकृति और देह का उल्लास एकाकार हो रहा हो। सृजनात्मकता के लिए प्रेरक यह सृजन से जुड़े लोगों को ही सृजनात्मकता के लिए प्रेरित नहीं करता बल्कि यह हर किसी में सृजनात्मकता का संचार भी करता है।गांवों में इसका प्रभाव देखा जा सकता है। ग्राम्य कला के सबसे शिखर दिन यही होते हैं। इन्हीं दिनों में लोकगीतों का समाँ बंधता है, लोककलाएं परवान चढ़ती हैं और धर्मसभाओं का भी आयोजन होता है। यह संभवत: काम का ही आध्यात्कि रूपांतरण है कि मीराबाई कहती हैं-बरसे बदरिया सावन की/सावन में मेरो उमग्यो मनवा, भनक परी हरि आवन की। यानि सावन में मीरा का मन भी उल्लास से भर जाता है और उन्हें इसी माह में अपने प्रभु के आने की भनक लगती है। धर्म की अलख सावन भूतभावन भगवान शिव का माह माना जाता है । पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव का एक रूप जल भी है। सावन की वृष्टि का आशय भगवान शिव की कृपा वृष्टि भी है। इसके अतिरिक्त पतित उद्धारक माह भी इसे कहा जाता है। पौराणिक आख्यान है कि जिनकी मुक्ति कहीं नहीं होती , किसी प्रकार नहीं होती वे श्रीमद भागवत कथा श्रवण से मुक्त हो जाते हैं। श्रीमद भागवत कथा श्रवण के लिए भी श्रावण मास को सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है। यह भक्ति के आनंद रस की वर्षा का माह है। अधिकांश शहरों में जगह-जगह बने शिवालयों में शिवाभिषेक और श्रीमद् भागवत कथारस की वर्षा होते देखे जा सकती है। इसी माह में एक अदभुत त्यौहार आता है नागपंचमी । पौराणिक दृष्टि से तो सांप शिव के गण है इसलिए उनकी पूजा होती है लेकिन सावन में इस पर्व के आने का विशेष अर्थ है। इसका अर्थ यह भी है कि मनुष्य उन बातों को, उन जीवों को और उन प्रवृत्तियों को भी अपने जीवन में सम्मान देकर उनसे समायोजन बिठाने की कला सीखे जो नकारात्मक हैं, विषैली हैं। रिश्तों का उल्लास सावन में ही रक्षा बंधन जैसा महापर्व आता है । यह भाई -बहन के पावन रिश्तों को और भी अटूट बनाता है, उन्हें एक -दूसरे के प्रति कर्तव्यों और प्रेम का स्मरण कराता है। बाजार भी गुलजार सावन जब सभी के लिए है तो बाजार के लिए भी । रक्षा बंधन बाजार के लिए सबसे बड़ा त्यौहार होता है। इसी दौर में मिठाई और चॉकलेट बनाने वाले ब्रांड अपने नए उत्पाद बाजार में लाते हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक सिर्फ रक्षा बंधन के मौके पर ही देश भर में पचास हजार करोड़ का व्यवसाय होता है। कुछ जरूरी बातें दरअसल सावन एक ऋतु के साथ-साथ एक एहसास का नाम भी तो है। यदि एहसास ही न रहें तो कितनी भी मोहक ऋतु क्यों न हो उसका कोई प्रभाव हम पर नहीं पड़ेगा। आपा-धापी भरे, भागमभाग भरे इस जीवन में यही हो रहा है। हमारे एहसास खो रहे हैं। शायद इसीलिए जाने-अनजाने हम उन चीजों को भी क्षति पहुंचा रहे हैं जो जीवन के असाधरण सौंदर्य के प्रेरक और पोषक इस माह के लिए जरूरी हैं। पर्यावरण का विनाश इनमें से एक है। वृक्ष हैं तो बारिश है, बारिश की नजाकत है तो सावन है। यदि हम चाहते हैं कि हमारी पीढ़ियां हमसे सावन की परिभाषा न पूछें बल्कि हमारी ही तरह उसके अमृत का रसास्वादन करें तो यह पहल हमें करनी ही होगी कि हम अपने पर्यावरण को संरक्षित करने के आत्मीय प्रयास करें। इसी सावन में पौधरोपण कर यह शुरूआत की जा सकती है, यह प्रकृति के आनंद में हमारी भी सहभागिता होगी।

राहुल के बहाने झांकिए अपने गिरेबान में

बाजार का दखल जिंदगी में कितना बढ़ गया है। एक वक्त था जब बाजारों में जिंदगी जीने के सामान बिका करते थे लेकिन अब जिंदगी की सारी खूबसूरती बिक रही है। इससे हजार कदम आगे का वीभत्स सच यह है कि जो समाज में कभी सबसे ज्यादा निंदित था,त्याज्य था वह सबसे आकर्षक आवरणों में इतनी ठसक के साथ बिक रहा है कि बाकी सब शर्मिंदा हो जाएं। टीवी पर एक कार्यक्रम आया-राहुल दुल्हनिया ले जाएगा। यह वही राहुल था जिसने अपने पिता के पीए के साथ भारी मात्रा में नशा किया और मौत के मुंह से वापस आया। इस घटना में उसके यशस्वी पिता प्रमोद महाजन के पीए की जान चली गई। बाद में यह शख्स अपने बचपन की दोस्त के साथ शादी और फिर उसे पीटने और तलाक लिए जाने की खबरों के लिए चर्चाओं में रहा। हर स्थिति में लोगों ने, खासकर महिलाओं ने उसे जी भर कर कोसा और ऐसा पति किसी को न मिले जैसी बातें भी की। यह सब हुए ज्यादा वक्त नहीं गुजरा था कि यही राहुल रातों-रात लड़कियों का चहेता बन गया। उसने खुद अपनी डरावनी छवि से बाहर निकलने के लिए पैसा लगा कर एक रियलिटी शो का आयोजन करवाया। इस शो के जरिए इस बदमिजाज शख्स को इस तरह प्रस्तुत किया गया जैसे इससे बढ़कर आदर्श पति तो किसी भी लड़की के लिए हो ही नहीं सकता । प्रायोजित तरीके से इस शो और राहुल महाजन की चर्चा टीवी, अखबारों और एफ एम में होने लगी। ऐसा लगने लगा जैसे कोई देवदूत धरती की कन्याओं को धन्य करने आया है। कई-कई लड़कियां इस स्वयंवर में शामिल हुंई पर इसे जीता डिम्पी नाम की एक बंगाली बाला ने जो एक मॉडल भी थी। ताजा खबर यह है कि राहुल ने देर रात डिंपी के साथ मारपीट की और उसने राहुल का घर छोड़ दिया। यह बाजार की प्रायोजित चमक के उतर जाने के बाद का सच था। कोई ताजुब्ब नहीं कि वे महिलाएं जो अभी कुछ ही दिन पहले तक राहुल के स्वयंवर में गजब की रूचि दिखा रहीं थीं वही एक बार फिर उसे गाली बकती,कोसती दिखाई देने लगें। इससे भी ज्यादा ताज्जुब की बात यह हो सकती है कि राहुल के स्वयंवर का सीजन टू आयोजित हो जाए और उसमें भी बढ़-चढ़कर लड़कियां हिस्सा लें और फिर अभी जिन जबानों से निंदा की बरसात हो रही है वे ही राहुल की तारीफों के कसीदे पढ़ने लगें। दरअस्ल यह मूल्यहीनता के उत्सव में तब्दील हो जाने का दौर है। बाजार की अनिवार्य शर्त हो गई है अब मूल्यहीन होना। मूल्यहीनता में आकर्षण है, चर्चा में बने रहने के तत्व हैं और मूल्यहीनता ही बिकाऊ है। जो बिकता है बाजार उसी पर अपना दांव लगाता है। कुछ समय पहले इसी मूल्यहीनता को सच का लिबास पहनाकर सच का सामना शो के माध्यम से बेचा गया था। वे लोग जो राहुल महाजन जैसे लोगों को पसंद करते हैं उन्हें अपनी बच्ची को परेशान करने वाले उसके पति को सजा देने या उसकी निंदा करने का अधिकार नहीं रह जाता । हम गलत के खिलाफ यदि कसमसाते हैं तो यह अपने आपमें उम्मीद जगाता है। लेकिन यह भी हमें ही तय करना है कि हम गलत के खिलाफ कितनी देर तक खड़े रहते हैं। यदि हम सिर्फ गलत को गलत कहकर ही संतुष्ट हो जाते हैं तो कहीं न कहीं यह गलत आहिस्ता से हमारे जीवन का हिस्सा बन जाता है और हम कब अनजाने ही उसके समर्थक हो जाते हैं हमें पता ही नहीं चलता। ऐसा होने पर हम स्वाभाविक रूप से गलत के विरोध का अधिकार खो देते हैं। राहुल प्रकरण के बहाने समाज को और इसके एक अहम हिस्से मीडिया को अपने गिरेबान में झांककर देखने की कोशिश करनी चाहिए। धीरेंद्र शुक्ल

ठंडा रखें दिमाग

गुस्सा सेहत के लिए अच्छा नहीं है, इसे काबू में रखना चाहिए, ये और ऐसी ही कई नसीहतें आपने अपने बुजुर्गों से सुनी होंगी। शायद ही आपने कभी इन पर गंभीरता से ध्यान दिया हो। लेकिन कॉलेज तक तो ठीक है पर उसके बाद जब आप जॉब के लिए जाते हेैं या जॉब करने लगते हैं तब यह कतई ठीक नहीं है। आप यह कह सकते हैं कि आपको हमेशा गुस्सा तब आता है जब कोई गलत बात करता है, यह बात आपको कहीं न कहीं संतोष भी देती है। इस अच्छी तरह समझ लें। इसमें कोई शक नहीं कि गलत बात का विरोध हर जागरुक और जमीर वाले आदमी को करना ही चाहिए लेकिन विरोध और क्रोध में फर्क है। विरोध बेहद शालीन और संयत ढंग से भी किया जा सकता है। भारत की क्रांति के इतिहास में भला भगत सिंह से ज्यादा मुखर विरोध करने वाला युवा कोई हुआ है! लेकिन वे भी गुस्सैल नहीं थे। उनका कहना था कि युवाआें का खून गर्म और दिमाग शांत होना चाहिए। आज यही बातें कॅरियर के लिए आपका मार्गदर्शन कर सकती हैं। जब आप जॉब में हैं तो कई बार ऐसे मौके आएंगे जब आपकी सलाह एकदम सही और तार्किक होगी पर आपका कोई कलीग इसे पूरी तरह नजरंदाज कर सकता है, बॉस भी ऐसा ही कर सकता है। ऐसे में आपको गुस्सा आ जाए तो यह सामान्य सी बात है लेकिन यहीं आपको सावधान हो जाना चाहिए। दरअसल जो जितना सही है उसे उतना ही शांत रहना चाहिए। शांत रहने से आपकी बात थोड़ा वक्त भले ले लेकिन ज्यादा देर तक और ज्यादा दूर तक सुनाई देती है। यदि आफिस में किसी गलत बात का विरोध आपने गुस्से में कर दिया तो जो लोग ऐसी किसी बात के पक्ष में हैं वे सब मिलकर सिर्फ आपके व्यवहार को मुद्दा बना लेंगे और ऐसे में आपका विरोध जायज है ये बात किनारे कर दी जाएगी। सब मिलकर यही कहेंगे कि देखो इसने ऐसा बर्ताव किया। टिप्स -जब आपकी किसी तर्क संगत का विरोध आपके सहयोगी तर्कहीन आधार पर करें तो, ओशो का जीवन मंत्र है कि उन पर क्रोध नहीं दया करो। आप ध्यान रखिए कि वे ज्यादा देर तक टिक नहीं पाएंगे, क्योंकि कोई भी कंपनी ऐसे एम्पलाई को जान-बूझकर देर तक तवज्जो नहीं दे सकती जिसकी बातों का तार्किक आधार न हो। -शालीनता और कायरता में फर्क होता है। जिसके भीतर सच की आंच को संभालने की ताकत है वही देर तक शालीन और शांत रह सकता है। इसलिए यदि आपको लगता है कि किसी संदर्भ विशेष में आप बिलकुल सही हैं तो गुस्सा करके अपनी बात का वजन कम मत करिये। -जिन साथियों से आपके मतभेद हैं उनसे भी अपने व्यवहार में मिठास बनाए रखिए,कड़वाहट मत आने दीजिये। आखिर आपको उन्हीं लोगों के बीच काम करना है ऐसे में कोई बात दिल पर लेकर, गांठ बांधकर रखेंगे तो काम करना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए बी कूल एंड गो अहेड।

जल चिंतन:संस्कृति का महत्वपूर्ण तत्व है जल संरक्षण

जल के प्रति हमारे यहां शुरू से ही एक तरह की चेतना, सजगता दिखाई देती है। पौराणिक आख्यान इस बात का प्रमाण हैं कि हमारे पूर्वज जल के प्रति अत्यंत संवेदनशील और दूरदर्शी थे। संभवत: इसीलिए पुराणों में भूतभावन भगवान शिव के जिन रूपों की चर्चा की गई है उनमें एक रूप जल भी है। इस बात के धार्मिक आधार तो हैं ही लेकिन इसके पीछे एक सामाजिक आधार भी है। हमारी संस्कृति में शिव का विशिष्ट स्थान है, वे सर्वपूज्य हैं, आदिदेव हैं इसलिए यदि जल उनका स्वरूप है तो हमें उनके इस स्वरूप का , जल का सम्मान करना होगा, उसके प्रति मितव्ययी दृष्टिकोण अपनाना होगा, यही इस पौराणिक आख्यान का सामाजिक निहितार्थ है। जीवन की छोटी -छोटी बातों में हमारी संस्कृति के मोहक रुप दिखाई देते हैं। लेकिन आपा-धापी के कारण हम उनके वास्तविक अर्थ को समझने से वंचित रह जाते हैं। हमारी संस्कृति का ऐसा ही एक रुप हैं कुंए और बावड़ियां। हमारे पूर्वज इनका निर्माण कराते थे। राजा-महाराजा जनता को जल की बेहतर उपलब्धता के लिए इन्हें बनवाते थे। जिनके पुराने मकान हैं उनके यहां कुआं जरूर मिल जाएगा। यह अलग बात है कि अब प्राय:लोग इन कुंओं में मोटर लगाकर उनके पानी का इस्तेमाल करते हैं, बहुत सी जगहों पर कुंओं को ढंक दिया जाता है। आज चारों तरफ मची जल की त्राहि-त्राहि का एक कारण और इसका सहज समाधान इन स्थितियों में देखा जा सकता है। यह मानवीय पृवत्ति है कि उसे जब कोई चीज सहजता से उपलब्ध होती है तो वह उसके प्रति लापरवाह हो जाता है। कुछ दोहे मनुष्य की इसी पृवत्ति की ओर इंगित करते हैं, जैसे- अति परिचय से होत है बहुत अनादर भाय/मलयागिर की भीलनी चंदन देत जराय। इस दोहे मे ंअतिपरिचय का एक अर्थ सहज उपलब्धता भी तो है। जल के प्रति हमारे यहां शुरू से ही एक तरह की चेतना, सजगता दिखाई देती है। पौराणिक आख्यान इस बात का प्रमाण हैं कि हमारे पूर्वज जल के प्रति अत्यंत संवेदनशील और दूरदर्शी थे। संभवत: इसीलिए पुराणों में भूतभावन भगवान शिव के जिन रूपों की चर्चा की गई है उनमें एक रूप जल भी है। इस बात के धार्मिक आधार तो हैं ही लेकिन इसके पीछे एक सामाजिक आधार भी है। हमारी संस्कृति में शिव का विशिष्ट स्थान है, वे सर्वपूज्य हैं, आदिदेव हैं इसलिए यदि जल उनका स्वरूप है तो हमें उनके इस स्वरूप का , जल का सम्मान करना होगा, उसके प्रति मितव्ययी दृष्टिकोण अपनाना होगा, यही इस पौराणिक आख्यान का सामाजिक निहितार्थ है। इसी संदर्भ में यह भी चिंतन का विषय है कि आज हम जल के अपव्यय को रोकने और उसके संवर्धन के यथा संभाव उपायों पर जोर दे रहे हैं। यदि हम कुंओं और बावलियों पर विचार करें तो एक बात साफ दिखाई देती है कि इनके निर्माण से ये दोनों ही बातें अपने आप पूरी हो जाती थीं। जब कोई श्रम करके, कुंए या बावड़ी से पानी खींच कर लाता है तो उसकी कोशिश होती है कि पानी की एक-एक बूंद का सही उपयोग हो। वह नहाता है तो हो सकता है घर में लगे नल से कई -कई बाल्टी पानी बहा दे लेकिन इस मामले में ऐसा नहीें हो सकता । कुंए और बावड़ियों में वर्षा जल का पर्याप्त संग्रह हो जाता है। जो साल भर की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त होता है। कुछ प्रदेशों की सरकारों ने मकान बनाने के लिए जलसंवर्धन की व्यवस्था करना अनिवार्य कर दिया है अन्यथा वहां मकान का नक्शा पास नहीं किया जाएगा ऐसी व्यवस्था कर दी गई है। लेकिन इस व्यवस्था का , इस कानून का पालन नहीं किया जाता। इस बारे में हम एक बात देख सकते हैं कि पहले हमारे आस-पास की अधिकतर जगहें पक्की यानि सीमेंट से बनी नहीं होतीं थीं। इससे बारिश का जल कम मात्रा में ही सही धरती के भीतर जाता था। घरों में कुंए होते थे और उनके चारों ओर की जगह भी सीमेंटेड नहीं होती थी। इससे भी पानी की कुछ मात्रा धरती के अंदर जाती थी और कुंओं का जलस्त्रोत जीवंत बना रहता था। भूजल स्तर में आई गिरावट का एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारे आस-पास से कच्ची, मिट्टी और मुरूम वाली जगहें खत्म हो गई हैं। चैन्नई नगर निगम ने इस बात का महत्व समझते हुए नालियों के निर्माण की तकनीक में संशोधन किया है। वहां नालियों के ऊपरी भाग और उसके भीतर दोनो ओर का कुछ भाग तो पक्का होता है लेकिन उसका आधार कच्चा रखा जाता है। ऐसा इसलिए किया गया है कि नालियों के माध्यम से जल की कुछ मात्रा धरती के अंदर जाती रहे। सारे देश में नाली निर्माण में जिस तकनीक का उपयोग किया जाता है उसमें आधार भी कांक्रीट से बना होता है। इससे जल भूमि के भीतर नहीं पहुंच पाता। चैन्नई जैसे विकसित शहर में इस तरह का उपयोग हमारे पूर्वजों की दूरदर्शी सोच का स्वीकार ही है। एक और बात इस दिशा में दिखाई देती है। हमारे पौराणिक आख्यान हैं कि यदि किसी मृत व्यक्ति के नाम पर कुंए या बावड़ी का निर्माण करा दिया जाए तो जब तक ये जल संसाधन जीवित रहते हैं दिवंगत व्यक्ति की आत्मा को तृप्ति और शांति प्राप्त होती रहती है। इस समय में, जबकि हालात मुश्किल से मुश्किल होते जा रहे हैं और किसी ने कहा है कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा तब यह बेहद जरूरी है कि हम अपनी छोटी सी सही लेकिन सार्थक कोशश कर पानी का संरक्षण करें। कुंओं को उनके स्वाभाविक रूप में इस्तेमाल करें ताकि जल अपव्यय की पृवत्ति पर थोड़ी ही सही पर कमी आ सके। अपने गार्डन और घर के आस-पास की जितनी जगह को हम मुरूम वगैरह डालकर उसके कच्चेपन में ही व्यवस्थित रख सकें उतना अच्छा। इससे भूजल स्तर बनाए रखने में मदद मिलेगी। यह भी सोचें कि हम लाखों रुपए खर्च कर मकान बनाते हैं और धरती से बेतहाशा जल शोषण करते हैं पर उसे एक बूंद भी नहीं लौटाते, यह अपने आप में हद दर्जे की कृतघ्नता है। इससे बाहर आने के लिए अपने मकान के निर्माण के समय वाटर हार्वेस्टिंग का इंतजाम अनिवार्य रूप से करें ।

जश्न के बीच कुछ उदास बातें

अब यह सर्वमान्य रस्म हो गई है कि देश के बारे में सिर्फ दो दिन ही बात की जाए-पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को। वैसे आम -आदमी हर रोज देश के बारे में बात करता है और कई-कई बार करता है। जब महंगाई के कारण दो वक्त की रोटी का जुगाड़ बहुत मुश्किल लगने लगता है -तब, जब भ्रष्टाचार के कोड़ोें से उसका दिल ओ दिमाग लहूलुहान हो जाता है-तब और ऐसे ही कितने दूसरे मौकों पर । तब वह इस देश के बारे में गौरवबोध से भरा नहंीं होता, उसके जहन और जुबान में जहर घुला होता है। देश के अधिकतर आदमी इसी तरह देश को याद करते हंै, रोज, हर वक्त। लेकिन जिन्हें साल में सिर्फ दो बार देश की याद आती है उनके साथ ऐसा नहीं है, उन्हें यह याद बड़े झमाके के साथ आती है। इसके अपने रोमांच हैं। देश का नाम सुनते ही इन दो दिनों में उनकी बांछें खिल जाती हैं। आखिर यही तो वह देश है जिसे वे नोंच-नोंचकर खा रहे हैं। यही तो वह देश है जहां काम हुए बिना ही करोड़ों के बिल पास होते हैं, जहां सड़ने के लिए हजारों टन अनाज खुले में रखा रहता है पर इसे हासिल करने के लिए गरीबों को पहले इस बात के लिए खटना पड़ता है कि वे खुद को गरीब कैसे सिद्ध करें, तब भी यह उन्हेंं मुफ्त में नहीं मिलता। सरकारी अस्पतालों में उनके साथ कीड़े-मकोड़ों सा व्यवहार किया जाता है। देर रात को मजदूरी करके या अस्पताल से किसी अपने को देखकर लौटते वक्त इसी गौरवशाली देश में तो आम आदमी को पुलिस के डंडे खाने पड़ते हैं और अजमल कसाब तथा अफजल गुरु जैसे वहशी दरिंदे फाइव स्टार होटल जैसी सुविधाआें के साथ रहते हैं, उन पर सरकारी खजाने से करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं। यानि यही वह देश है जो उनकी मर्जी से चलता है। यही वह देश है जहां के प्रधानम्ांत्री सर्वशक्तिमान हैसियत में होने के बाद भी महंगाई कम करने की कोशिशें करने के बजाय आम आदमी के सामने आंकड़ों का तिलिस्म खड़ा कर उसकी भूख को बेमानी सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। यही वह देश है जहां हर खौफनाक असलियत झूठ और हर चमकदार झूठ सच सिद्ध कर दिया जाता है। स्वाधीनता दिवस पर सच सिद्ध कर दिए गए ऐसे ही झूठे जश्न का सबब बनते हैं और उनपर इतराकर बयानबाजी की जाती है। 64 वें स्वाधीनता दिवस पर इन हालात का जिक्र भी तो जरूरी है। अखबार और दूसरे तमाम प्रसार माध्यम साल भर आजाद देश के मुर्दा हो जाने और आजादी के क्षत-विक्षत हो जाने की खबरें छापते हैं तो फिर इस एक दिन ही असलियत से मुंह क्यों मोड़ा जाए। दरअसल यह गौरवगाथा के गर्दभगायन का नहीं, किसी एक दिन ही सही अपने होने का एहसास कराने का वक्त होता है। इसी एक दिन संगठित होकर हर तरह की लूट के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत सामने आनी चाहिए। जो विलाप हर वक्त होता रहता है उसे आज के दिन गर्जन में बदलना चाहिए और साल दर साल उसका असर ऐसा होना चाहिए कि रोज-रोज का रोना कम से कम हो, जिंदगी में जिंदगी की आहट सुनाई देने लगे। जमीर की उम्मीद अब किससे की जाए , पर जिन्हें भी लगता है कि उनके भीतर यह धड़कता हुआ मौजूद है और वे इन हालात को बदलने में कुछ कर सकते हैं उन्हें कुछ न कुछ जरूर करना चाहिए। बेशक संगठित मक्कारी ताकतवर हो सकती है लेकिन आम आदमी के छिटपुट प्रयास भी उसको चुनौती दे सकते हैं। जन,गण,मन की गगनचुंबी आवाजों के बीच इन जरूरी बातों की सुगबुगाहट भी जरूर होनी चाहिए।