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Monday, December 14, 2009

ग्लोबल वार्मिंग और रिश्ते

ग्लोबल वार्मिंग पर कोपेनहेगन मैं सम्मलेन हो रहा है । जिन बातों पर चर्चा हो रही है वे सब साफ़ दिखाई देती हैं, पर जो नही दीखता लेकिन महसूस होता है वो है एक बेहद नाज़ुक सा रिश्ता -प्रेम का । ठण्ड मैं प्रकृति अपना प्यार इस तरह लुटाती है की यदि उसे ठीक ठीक महसूस कर लिया जाए तो वह खून मैं घुल कर तृप्त कर देता है । यह पूस का माह है । प्रेमचंद की कहानी -पूस की रात इसी माह की नजाकत की कहानी है । लेकिन लगता है की ये माह भी अपनी नजाकत खो रहा है । भोपाल की बात करूं तो यहाँ दिन गर्म हैं और रातें भी इतनी ठंडी नही हैं की बदन थरथरा जाये । अब आशंका होती है की कडकडाती सर्दियों मैं दूर तक सूनी सड़कें , हर तरफ़ पसरा सन्नाटा कहीं कल की बात न हो जाए । ऐसी ही एक रात मैं , इसी रुत की तासीर वाला एक गीत उतरा था - लिखना तुम कैसा लगता है - बिना हमारे पूस की इस सर्दी मैं लिखना धुप तुम्हें कैसी लगती है लिखना तुम कैसे लगते हैं झरती ओस मैं साँझ -सकारे बिना हमारे हमतो इन रास्तों मैं अक्सर दूर -दूर जाया करते हैं रातों के अंधियारों मैं बस ख़ामोशी गाया करते हैं सन्नाटे हर तरफ दीखते हैं बांह व्याकुल बांह पसारे -बिना तुम्हारे

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