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Monday, September 27, 2010

शिक्षा के सबक बेचतीं परचून की दुकानें

कवि मैथलीशरण गुप्त ने करीब पांच दशक पहले कहा था- शिक्षे तुम्हारा नाश हो, तुम अर्थ का साधन बनी। वे आज होते तो क्या करते और क्या कहते? शिक्षा में बाजार के घुसपैठ की आहट उन्होंने पचास साल पहले सुनी थी और आज हालत यह है कि बाजार ने शिक्षा को उसके ही घर से बेदखल कर दिया है। शिक्षा के सारे सूत्र और संभावनाएं बाजार के हाथ में हैं। संस्कारों और मूल्यों की बातें करना यहां अब दकियानूस होने की निशानी बन गया है । जब सभी कुछ बाजार का है तो जाहिर है कि भाषा और चरित्र भी बाजार का ही है। जिसे कभी शिक्षा का मंदिर कहा जाता था, वे शालाएं इसीलिए अब शिक्षा की दुकानें हैं। जब दुकानें हैं तो उन्हें चलाने वाले भी खासे दुकानदार ही हैं। पहले स्कूल चलाने के लिए जरूरी होता था कि संचालक की मंशा पवित्र हो, वह अपनी पीढ़ी को जीवन मूल्योें के साथ स्तरीय शिक्षण की सामर्थ्य भी रखता हो। अब चूंकि सवाल दुकान का है इसलिए यहां का गणित दूसरा है। बेहतरीन बिजनेस वाले स्कूल के लिए जरूरी है कि कम से कुछ एकड़ों या बीघों की जमीन हो, इस जमीन पर किसी मल्टीप्लैक्स सी दिखने वाली इमारत बनवाने के लिए कुछ करोड़ रुपये हों,एकाध दर्जन बसें हों और विज्ञापन के लिए ढेर सारा फं ड अलग। जाहिर है यह किसी आम आदमी के बूते की बात नहीं है इसलिए जिनकी तिजोरियां धन की हजार धाराओं की मिलन स्थली बन गई हैं ऐसे भू माफिया, राजनेता,ठेकेदार, धर्म के ठेकेदार और इसी जमात के दूसरे तमाम लोग स्कूल के धंधे में हैं। जब स्कूलों के मामले में हालात ऐसे हैं तो अनुमान लगाया जा सकता है कि कॉलेजों को लेकर क्या स्थिति होगी। हाल ही में आगरा में इनकम टैक्स विभाग ने शारदा ग्रुप आॅफ इंस्टीट्यूशन्स,जीएल बजाज और सुनील गलकोटिया ग्रुप के यहां छापा मारकर करीब 200 करोड़ रुपए की बेनामी संपत्ति उजागर की है। ये ग्रुप इंजीनियरिंग,मेडिकल और मेनेजमेंट के कोर्सेस चलाते हैं। यह एक बहुत ही छोटी सी घटना है। पूरे देश के हर छोटे बड़े शहर में दर्जनों की तादाद में ये कोर्सेस चलाने वाले कॉलेज धड़ाधड़ खुल रहे हैं। एक वक्त था जब इंजीनियर, डाक्टर बनना अपने आप में सामाजिक रुप से बड़ी प्रतिष्ठा की बात होती थी। इसके कारण भी थे। तब एक बात यह तय मान ली जाती थी कि इस तरह की डिग्री हासिल करने वाला व्यक्ति योग्यता की कसौटी पर खरा है। उसे इसका पारितोष भी मिलता था। सरकारी नौकरी तो उसे मिल ही जाती थी। अब ऐसा नहीं है। इंजीनियरिंग के लिए टेस्ट अभी भी होते हैं लेकिन सबकी सिर्फ औपचारिकताएं हैं। थोड़े बहुत अंक हासिल करने वाले को भी किसी न किसी फिसड्डी कालेज में एडमीशन मिल ही जाता है, बस उसकी फीस चुÞकाने की हैसियत होनी चाहिए। मेडिकल का क्षेत्र तो सबसे ज्यादा बदत्तर बना दिया गया है। महाराष्टÑ में दशकों से ऐसे कॉलेज चल रहे हैं जो बीस-बीस लाख रुपए लेकर बिना स्पर्धा के एडमीशन दे देते हैं। खास बात यह है कि शिक्षा की बड़ी दुकानों के संचालकों ने ऐसे -ऐसे नारे गढ़ दिए हैं कि उनकी चमक में असलियत दिखाई ही नहीं देती। सिविल इंजीनियरिंग से बीई की डिग्री लेने वाले दर्जनों युवक -युवतियों को किसी बिल्डर के यहां आज के दौर की बहुत मामूली सी तनख्वाह पर नौकरी करते देखा जा सकता है। एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि सरकार को जितने इंजीनियर्स हर साल चाहिए उससे करीब दोगुने हर साल पास आउट हो रहे हैं। यह एक सच है जो कभी सामने नहीं लाया जाता। मेडिकल में स्थितियां दूसरी हैं। यहां सरकारी मांग ज्यादा है लेकिन यह ऐसा काम है जो चाहे जहां बैठकर शुरु किया जा सकता है, बिना खास लागत के इसलिए इसके पढ़े विद्यार्थी सरकारी नौकरी में जाना नहीं चाहते, जाहिर है मोटी रकम देकर डिग्रियां लेने वाला उसकी कीमत आम आदमी से वसूल करने के लिए घात लगाए बैठा रहता है। बाजार के इस खेल में जो नुकसान हो रहा है उसकी तरफ सरकारों का ध्यान नहीं है। अब उच्चशिक्षा की उपलब्धता तो बढ़ी है, उसका मात्रात्मक विस्तार तो हुआ है लेकिन उसकी गुणात्मकता खो रही है। शायद इसीलिए कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स और नोबेल विजेता रामकृष्णन जैसी प्रतिभाओं का निखार और विस्तार भारत में नहीं हो पाता और ऐसे नाम भारतीय मूल के भले हों भारत के नहीं हो पाते। आंकड़ों के आइने में भी यह बात साफ दिखाई देती है। भारत ने आजादी के बाद से उच्च शिक्षा में जबर्दस्त प्रदर्शन किया है। 1947 में भारत में कुल 18 विश्वविद्यालय और 518 महाविद्यालय थे जिनमे 2,28,881 विद्यार्थी पढ़ते थे और उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या थी 24000। साल 2009 तक यह स्थिति पूरी तरह बदल गई आौर विश्वविद्यालयों की संख्या हो गई 518, और महाविद्यालय हो गए25951 । इनमें एक करोड़ छत्तीस लाख बयालीस हजार विद्यार्थी पढ़ रहे थे और उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या थी 5,85,000। यह उच्च शिक्षा का विस्तार था लेकिन इसकी गुणवत्ता कितनी निखरी इसकी तस्वीर थामस रायटर द्वारा कराए गए एक सर्वे के निष्कर्ष में साफ देखी जा सकती है। इसमें कहा गया है कि भारत का उच्च और उच्चतर शिक्षा में सकल दाखिला अनुपात महज 11फीसदी है, जो विकसित देशों की तुलना में काफी कम है। अमेरिका में यह 83फीसदी है तो कोरिया में 91फीसदी। चीन, उच्च शिक्षा और शोध दोनों ही क्षेत्र में हमसे आगे हो गया है। वर्ष 1988-93 में शोध के क्षेत्र में चीन की हिस्सेदारी महज 1.5प्रतिशत थी लेकिन वर्ष 1999- 2008 में उसने इसमें जबर्दस्त सुधार करते हुए उसने इसे 6.2 फीसदी तक पहुंचा दिया। भारत की स्थिति उलटी रही साल 1988-93 में 2.5 फीसदी हिस्सेदारी के साथ भारत चीन से बेहतर स्थिति में था लेकिन साल 1999- 2008 में उसने नाममात्र की बढ़त हासिल की और यह आंकड़ा महल 2.6 तक ही पहुंच पाया। भारत के पूर्व राष्टÑपति डा.एपीजे अब्दुल कलाम ने अपने कार्यकाल में इसी बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया था कि विश्वविद्यालयों को अपनी शोध क्षमताओं का विस्तार करना चाहिए। लेकिन जिस देश के एक छोटे से प्रदेश में एक-एक कमरे में तीन दर्जन से ज्यादा विश्वविद्यालय खोल दिए गए रहे हों, जहां आज भी 21 विश्वविद्यालय फर्जी हों और जहां शिक्षा की गुणवत्ता को कोई मानक ही न हो वहां कलाम जैसे वैज्ञानिकों की हसरतें भला कैसे पूरी हो सकती हैं?

1 comment:

  1. Sir apka agra wala number miss ho gaya hai. please mujhe de dijiye ya phir aloktbsm@gmail.com par mail kar dijiye

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