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Sunday, September 26, 2010

शहरयार को ज्ञानपीठ सम्मान

उर्दू के बेमिसाल शाइर कुंअर अखलाक मुहम्मद खान ‘शहरयार’ को 44 वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई है। वे यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले उर्दू के चौथे शायर हैं। उन्हें इस पुरस्कार से सम्मानित किए जाने के कई मायने हैं। यह एक शाइर और उसके रचनाकर्म का सम्मान तो है ही इसके अलावा भी बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनका मूल्यांकन शहरयार को इस पुरस्कार का सहज अधिकारी बनाता है। उनके गीत, गजल और नज्में साहित्य और आम पाठक के बीच एक गहरा रिश्ता कायम करती हैं। उनका ताल्लुक समाज के हर वर्ग से रहा है, उनसे भी जो हर तरह के साहित्यिक संस्कारों से दूर रहते आए हैं। यह उनके रचनात्मक कौशल का ही करिश्मा है कि उमराव जान की गजलें करीब ढाई दशक का लंबा फासला तय करने के बाद भी ऐसे ही आदमी की जुबान पर मचलती रहती हैं, फिजां में गूंजती रहती हैं। बदलते वक्त ने आदमी और समाज में जो एकाकीपन पैदा कर दिया है उसकी गूंज शहरयार की गजलों में बहुत पहले से सुनाई देती रही है। करीब तीन दशक पहले आई फिल्म गमन की यह गजल आज भी हर संजीदा जहन की वीरानियों में गूंजती है-सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यों है, इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है। एक और गजल फिल्म आहिस्ता-आहिस्ता के जरिए लोगों तक पहुंची- कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आसमाँ नहीं मिलता...। ये गजलें गंभीर हैं और इंसानी जज्बातों को बेहद खूबसूरती से नुमाया करती हैं। आमतौर पर आमदर्शक गंभीरता से परहेज करता है लेकिन शहरयार की ये और ऐसी ही गजलें इसलिए लोगों के दिलों में बसती हैं कि यह किसी फिल्म की नहीं, किसी शाइर की नहीं , उन्हें अपनी ही बात लगती हैं। इसी गजल की आखिरी पंक्ति है- तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो, जहां उम्मीद हो उसकी वहां नहीं मिलता। भला ऐसा कौन होगा जो अपनी जिंदगी में कहीं न कहीं , कभी न कभी इस सच्चाई से रू-ब-रू न हुआ हो। जिंदगी ऐसे ही तल्ख और तल्ख होती चली जाती है, ऐसे भी हालात हो जाते हैं कि इंसां के जिस्म में लहू की बजाय जहर दौड़ने लगता है- शहरयार की गजल का एक शेर है-इक बूंद जहर के लिए फैला रहे हो हाथ, देखो कभी खुद अपने बदन को निचोड़ के।

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