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Wednesday, May 3, 2023

प्रेस की स्वतंत्रता पर कुछ अपरिहार्य प्रश्न

प्रेस की स्वतंत्रता पर कुछ अपरिहार्य प्रश्न  

 विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर पत्रकारिता से जुडे संस्थानों और पत्रकारों के बीच प्रेस की आजादी को लेकर मंथन चल रहा है,तरह-तरह की बातें हो रही हैं और भारत में मोदी मीडिया,गोदी मीडिया जैसे संबोधनों की सार्थकता और निरर्थकता पर भी बात हो रही है। पूरा ध्यान इस बात पर है कि प्रेस की आजादी को लेकर सरकारों की सोच और दृष्टिकोण क्या है,यह बात है भी ऐसी कि इस पर ध्यान दिया भी जाना चाहिए, लेकिन प्रश्न यह है कि भारत में पत्रकारिता को लेकर आज के संदर्भों में क्या यह एकमात्र प्रश्न है? भारत में प्रेस की स्वतंत्रता क्या पूर्ण रूप से इसी बात से निर्धारित होती है कि सरकार की कड़ाई या उदारता प्रेस के प्रति कितनी है? क्या दूसरे कोई कारण नहीं हैं जो प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करते हों ? भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को जो बातें वस्तुतः प्रभावित करती हैं उन पर जब तक हम विचार नहीं करेंगे तब तक यह विमर्श अर्थहीन है, बेमानी है और बेईमानी भी।  कुलदीप नैयर की बात आपकी स्मृति में आती है? आपातकाल को लेकर उन्होंने तत्तकालीन सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल से बात की तो शुक्ल ने उनसे जो कहा वह प्रेस की स्वतंत्रता के सही विमर्श की दिशा का निर्धारण करता है, शुक्ल ने कहा कि ’ हमने प्रेस को झुकने के लिए कहा लेकिन वे तो लेट गए।’ तो फिर बात यही बस नहीं होनी चाहिए कि स्वतंत्रता सरकारें कितनी देती हैं, बात यह भी होनी चाहिए कि पत्रकारिता और पत्रकार स्वयं कितनी स्वतंत्रता चाहते हैं। क्या वाकई उनके गले में कोई सरकारी दबाव अटक कर उनकी आवाज को घुटन में बदल रहा है या फिर वे स्वयं प्रलोभनों के लॉलीपाप चूसने में इतने व्यस्त हैं कि जिन बातों को,राजों को उन्हें जोर से चिल्लाकर कहना चाहिए उन्हें वे खुद भूल जाना चाहते हैं, भूल जाते हैं।  थोड़ा इस तरफ आइए, आज की अप्रिय सच्चाई की तरफ। समाचार पत्रों में संपादक एक निर्णायक संस्था हुआ करती थी,समाचार पत्र की दिशा और प्रभाव का निर्धारण संपादक ही किया करता था लेकिन अब क्या स्थिति है? बडे़-बडे़ समाचार प्रतिष्ठानों में संपादक उसे बनाया जाता है जिसकी लाइजनिंग बहुत बढिया होे। लाइजनिंग, अर्थात सरकारी अधिकारियों से पत्रकारों के रिश्ते। मैं तीस सालों से पत्रकारिता में हूं और मैने अपने सामने और अपने साथ यह होते देखा है। मैं भोपाल में था, एक बडे पत्रकारिता प्रतिष्ठान में काम मांगने गया और संपादक से मिला तो उन्होने मुझसे पहला और एकमात्र प्रश्न किया कि मेरी लाइजनिंग कैसी है?  एक और संपादक से मिला तो उन्होंने पूछा कि आपका सबसे मजबूत पक्ष कौन सा है? मैने कहा विचार और भाषा। वे बोले,अरे ये सब छोड़ो, ये बताओ कि आपकी लाइजनिंग कैसी है। एक बडा समाचार पत्र जबलपुर आने वाला था, लंबे समय से मैं उसके समूह संपादक के संपर्क में था, वे जब  जबलपुर आए तो उनका फोन आया कि मैं कल जबलपुर में हूं आप मुझसे मिलने आ सकते हैं। मैं अगली सुबह भोपाल से जबलपुर आया, समाचार संपादक के पद पर काम की संभावना को जानने के लिए,उनसे जबलपुर की पत्रकारिता के परिदृश्य और पत्रकारों और मेरी भूमिका को लेकर लगभग ढाई घंटे बात हुई और आखिर में उन्होंने मुझसे यही प्रश्न किया कि आपकी लाइजनिंग कैसी है? और वे यहीं नहीं रुके उन्होंने यह भी कहा कि क्या कोई बड़ा नेता आपकी सिफारिश कर सकता है? यह पत्रकारिता में किए गए सबसे निकृष्ट प्रश्नों में से एक था इसलिए मुझे बहुत जोर से गुस्सा आ गया और मैने उनसे कहा कि एक नहीं कई लोग सिफारिश कर सकते हैं पर मैं ऐसा करूंगा नहीं आपको नौकरी अगर मेरी क्षमताओं पर देनी हो तो ठीक इस तरह की बातें मैं बर्दाश्त कर नहीं पाता। स्पष्ट है कि फिर नौकरी तो मिली ही नहीं कुछ दिनों बाद मैने वहां एक ऐसे साथी को समाचार संपादक के पद पर काम करते हुए देखा जो अपनी लाइजनिंग के लिए बहुत ख्यात या कुख्यात थे।  एक ऐसे साथी को भी मैं पिछले तीस साल से व्यक्तिगत रूप से जानता हूं जिन्हें जबलपुर की पत्रकारिता में बहुत बडे़ नामों में गिना जाता है लेकिन पूरे जीवन उन्हें समाचार लिखना तक नहीं आया लेकिन वे मात्र अपनी असाधारण लाइजनिंग की सीढियांें पर ऊपर से ऊपर चढते गए।   सच्चाई यह है कि समाचार पत्रों में प्रशासनिक और पुलिस की बीट देखने वाले समझदार संवाददाताओं के पास कई बार ऐसे समाचार होते हैं जो अधिकारियों की कुर्सी और पूरा अस्तित्व हिला सकते हैं, यही वे समाचार होते हैं जिन्हें व्यक्त करने की स्वतंत्रता की आकांक्षा और समर्थन यह विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस करता है लेकिन क्या ये संवाददाता ऐसा करते हैं? कर पाते हैं का प्रश्न तो बाद में आता है पहला प्रश्न यह है कि क्या उनके भीतर इस बात की अकुलाहट होती है कि वे ऐसे समाचारों को छाप कर समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करें और गर्व से कह सकें कि हां यह मैने किया है? हमारे एक परम आदरणीय पत्रकार मित्र हुआ करते थे,पंडित अवधेश मिश्र जी। वे कहते थे कि सच्चा पत्रकार वह है जो सबको जाने पर जिसे कोइ न जाने। वे कहते थे कि पत्रकार को जब बहुत लोग जानने लग जाते हैं तो समाचारों तक उसकी पहुंच में बड़ी बाधाएं आ जाती हैं। क्या इस कसौटी पर किसी पत्रकार को आज परखा जा सकता है? और परखा जाए तो कितने इस पर खरे उतरेंगे। अब तो सेलेब्रिटी पत्रकार बनने की होड़ लगी है और कहने की स्वतंत्रता में बडे़ रोडे़ अटकाए जा रहे हैं यह एक ऐसा जुमला बन गया है जैसे जुम्मन मियां मुंह में पान की पीक भरकर अटर-गटर बोल जाते हों।  तो सारांश यह है कि आपके यानि पत्रकारों के पैरों में क्या बेड़ियां लगी हैं यह देखिए, है कोई बेड़ी? नहीं है। आप जब तक खुद बिकने तैयार न हों तब तक कोई आपको खरीद नहीं सकता लेकिन आप खुद ही अपनी बोली लगाकर बिकें और बाद में इस बात का रोना रोएं कि मुझे खरीद लिया गया, मेरी स्वतंत्रता की हत्या कर दी नहीं तो मैं व्यवस्था की चूलें हिला देता, तो क्या इस रुदन का कोई अर्थ है? क्या यह रुदन समाज के हित के लिए माना जा सकता है? आज पत्रकारिता के लिए संभावनाएं जितनी प्रबल हैं उतनी संभवतः इतिहास में कभी नहीं रहीं। पूरी व्यवस्था सडांध मार रही है, विसंगतियां खोजने की आवश्यकता ही नहीं वे उफान पर हैं फिर भी उनके बारे में पत्रकारिता चर्चा करने के लिए तक तैयार नहीं है। गोदी या मोदी मीडिया कहकर आप सच्चाई के पहरुए नहीं बन सकते।  क्या यह बात आपको चकित नहीं करती कि जिस अडानी पर घोटालों का आरोप लगाते राहुल गांधी थकते नहीं उन आरोपों की सच्चाई जानने के लिए कभी किसी ने कोई उपक्रम क्यों नहीं किया? जिन एन राम ने बोफोर्स घोटाले को उजागर किया था वे और उनका पत्रकारिता संस्थान आज भी कथित रूप से सत्ता के विरूद्ध हैं और बहुत सक्षम भी हैं तो फिर उन्हें ऐसे प्रमाणों तक पहुंचने से किसने रोक रखा है, फिर इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप है और खुद रवीश कुमार भी हैं जिन्हें जनसरोकारों वाली पत्रकारिता के लिए मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। फिर ऐसा भी है कि चलिए एक क्षण के लिए मान लिया जाए कि कोई एक पत्रकार बिकाउ हो सकता है, एक संस्थान भी बिक सकता है लेकिन क्या सारे देश के सारे पत्रकारिता प्रतिष्ठान ही बिक गए हैं? या फिर इन सभी का यह सामूहिक तर्क है कि उन्हें कहने से रोका जा रहा है? इसलिए स्थितियों का विश्लेषण यह बताता है कि गोदी और मोदी मीडिया ऐसे शब्द हैं जिन्हें पत्रकारिता को लंाछित करने के लिए राजनीति ने तैयार किया है लेकिन जिसका उपयोग समाज में तक सत्ता संस्थानों के समर्थक और विरोधी धड़ल्ले से कर रहे हैं।   आज पत्रकारिता की साख पर संदेहों की काली छाया है तो यह सत्ता प्रतिष्ठानों के कारण नहीं पत्रकारों और पत्रकारिता संस्थानों की लाभ और सुविधा आधारित सुविचारित प्रतिबद्धता के कारण है। मैने सुना है (हालांकि इसकी सच्चाई का कोई दावा मैं नहीं कर सकता)कि जवाहरलाल नेहरू ने एक बार इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के मालिक श्री रामनाथ गोयनका से कहा था कि इंदिरा मेरी बेटी है और इसे मैं तुम्हारे हवाले कर रहा हूं, इसका ध्यान रखना, पर इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया तो एकमात्र इंडियन एक्सप्रेस ही था जिसने आपातकाल का घोषित और पुरजोर विरोध किया और आपातकाल के बाद आपातकाल के समय हुए अनाचार-अत्याचारों की सत्य घटनाओं को छापकर इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई। क्या जैसी लाइजनिंग गोयनका जी की थी वैसी किसी और की हो सकती है? लेकिन उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के महत्व को समझा और व्यक्तिगत लाभ को अछूत मानकर वह किया जो एक सत्यागृही अर्थात सत्य के प्रति आगृह रखने वाले पत्रकार को करना चाहिए था।  वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे पर किए जा रहे ढकोसलों से कुछ नहीं होता। यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि राजनीति कभी सत्य आधारित नहीं होती,उसमें सत्य का अंश हो सकता है, पूरा सत्य नहीं इसलिए उसके अर्धसत्य के दुश्प्रभाव समाज पर किस तरह, किन रूपों में पड रहे हैं उसे सामने लाने का उत्तरदायित्व पत्रकार का होता है और अभी कम से कम भारत में ऐसी स्थिति नहीं है कि उसे कहने से किसी को रोका जा सके।  आज सोशल मीडिया पर तो कोई रोक नहीं है। लेकिन अगर मोदी सरकार इतनी खराब है जितनी बताई जा रही है तो उसके विरूद्ध तथ्यात्मक समाचार आज तक कोई भी प्रकाशित क्यों नहीं कर सका? कौन रोक रहा है?  सत्य बोलना और सत्य की राह पर चलना कभी भी सुविधाजनक नहीं रहा,इसका मोल तो चुकाना ही पड़ता है फिर पत्रकारिता का तो काम ही है असत्य को उजागर करना तो वह सुरक्षित तो हो ही नहीं सकती लेकिन आज सुरक्षित ही नहीं समृद्धि और सम्मानपूर्ण जीवन का साधन बन गई है तो इसके कारणों का विश्लेषण किया जाना चाहिए और यह भी समझा जाना चाहिए कि पत्रकारिता की विकृतियां ऐसे ही बढती गईं तो उसका भविष्य क्या होगा।  मुझे लगता है कि भारत में विश्व पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस(वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे) पर पत्रकारों को इस बात पर सच्चाई से विचार करना चाहिए कि उन पर बंधन हैं या उन्होंने सुविधाओं का सुख लेने के लिए इन बंधनों को स्पर्धाओं के माध्यम से प्राप्त किया है? क्या इस दिन रोवारेंट करना एक परंपरा है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि एकदिन ऐसा भी आए जब हम इन बातों का उल्लेख कर सकें कि स्वतंत्रता के प्रति अपनी असाधारण प्रतिबद्धता के कारण पत्रकारिता ने ऐसा परिवर्तन करके दिखा दिया जो उसकी धधकती हुई आग का प्रमाण है? क्या पत्रकारिता के हिस्से में उपलब्धियां निरंतर घटती जा रही हैं?   अजहर इनायती का एक शेर है-

                                    ये और बात है कि आंधी हमारे बस में नहीं                            

                                   मगर चराग जलाना तो इख्तियार में है   

चराग जलाने का यह इख्तियार और ज़रूरत हमेशा कायम रहे और अकबर इलाहाबादी के शब्दों में कहें तो तीर -कमान, तलवार और तोपों को शिकस्त देने का पत्रकारिता का हुनर और जज्बा हमेशा बने रहे-            

     खेंचों न कमानों को न तलवार निकालो                                                                                                            जब तोप मुकाबिल हो, अखबार निकालो      

   विश्व पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस पर सभी पत्रकारों को अशेष आत्मीय शुभकामनाएं और पाठकों को भी।

#world pess freedam day
#विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस 

कानून से बड़ा कद

 कानून से बड़ा कद

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इन दिनों माफिया,गुंडों और ऐसे लोगों के काल के रूप में देखा-दिखाया जा रहा है जो समाज के शांतिपूर्ण ढांचे को क्षति पहुंचा रहे हैं या पहुचा सकते हैं,फिर भाजपा का केंद्रीय एजेंडा है बेटी बचाओ-बेटी पढाओ और उस पर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अतिसंवेदनशील वक्तव्यों की विचारपूर्ण श्रृंखला और इन सबसे ऊपर कानून, कानून में भी वह कानून जिसे निर्भया कांड के बाद देश की संसद ने संशोधित किया और स्त्री के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए जितना बन पड़ा उतना संवदेनशील और सख्त बनाया। यह सब हैं, लेकिन इस समय इन सबसे ऊपर है ब्रजभूषण शरण सिंह। ओलंपिक,एशियाड और काॅमन वेल्थ जैसे शीर्ष स्थानों पर कुश्ती में पदक हासिल कर देश को गर्वोन्नत करने वाले पहलवान पिछले पांच माह से आरोप लगा रहे हैं कि ब्रजभूषण ने महिला पहलवानों का दैहिक शोषण किया इसलिए उस पर एफआईआर दर्ज करके उसे गिरफ्तार किया जाए लेकिन केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर द्वारा जनवरी में दिए गए आश्वासन के बाद भी चार माह तक एफआईआर नहीं हुई और देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप के बाद दिल्ली पुलिस ने 28 अप्रेल को उस पर एफआईआर दर्ज की, इसमें नाबालिग के शोषण से संबंधित आरोपों के कारण ही पाॅस्को एक्ट के तहत भी मामाला दर्ज किया गया है जिसकी अधिकतम सजा उम्रकैद है लेकिन ब्रजभूषण को इससे कोई फर्क नहीं पड रहा। ताजा बयान यह है कि इतने संगीन आरोपों से घिरा यह व्यक्ति सीना ठोंक कर कह रहा है कि मैं इस्तीफा नहीं दूंगा। हालांकि अब पहलवानों की यह मांग भी नहीं है कि ब्रजभूषण का इस्तीफा हो वे तो अब उसे सलाखों के पीछे देखना चाहते हैं और इसलिए सारे ट्रेनिंग कैम्पों में जाने से मनाकर वे दिल्ली में जंतर-मंतर पर धरने पर बैठे हैं। इनमें सभी शामिल हैं-पुरुष और महिला दोनों, जिनमें विनेश फोगाट,साक्षी मलिक और बजरंग पूनिया सहित दर्जनों पहलवान हैं। महिला पहलवान विनेश और साक्षी के कई वीडियो सामने आए जिसमें वे बिलख रहीं हैं और लाख कोशिशों के बाद भी एक गलत आदमी की दबंगई देखकर हतप्रभ और क्षुब्ध हैं पर निराश नहीं।
अब इन पहलवानों के समर्थन में कपिल देव,हरभजन सिंह,और नीरज चैपडा जैसे लोग भी सामने आए हैं जो पूरी तरह निर्विवाद रहे हैं और जिन्हें खेलों में उनके अतुलनीय योगदान के लिए सराहा और सम्मानित किया जाता है। हालांकि स्वरा भास्कर जैसी डिजायनर बुद्धिजीवी और प्रियंका गांधी भी इन नामों में शामिल हैं लेकिन इससे इन पहलवानों की न्याय प्राप्त करने की मंशा और संघर्ष पर प्रश्न नहीं खडे किए जा सकते।
क्या यह हैरत में डाल देने वाली बात नहीं है कि जिन पहलवानों की सारी दुनिया में अपनी पहचान है,जो करोड़ों खेल प्रेमियों के चहेते और आदर्श हैं और जिनके कारण भारत को कई अंतर्राष्ट्रीय खेल स्पर्धाओं में गौरव प्राप्त हुआ है उन्हें ही दैहिक शोषण जैसे गंभीर आरोप के लिए एफआइआर दर्ज कराने तक सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा है। क्या यह तुलना असंगत है कि एक तरफ देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के मुखिया को सिर्फ उसके वक्तव्य देने पर सजा हो जाती है और दूसरी तरफ बलात्कार जैसे संगीन आरोपों से घिरा एक व्यक्ति पूरी व्यवस्था को अपने दंभ के पैरों तले कुचल रहा है और सब निरीह से देख रहे हैं, कुछ कर नहीं पा रहे हैं, वे नेता भी नहीं जो नैतिकता का पाठ दूसरी पार्टियो को पढ़ाते नहीं थकते और जिनसे वाकई देश की करोडो जनता इस मामले में व्वरित हस्तक्षेप की आस लगाए बैठी है।
यह चकित कर देने वाला है कि सोशल मीडिया में यह प्रोपेगेंडा चल रहा है कि ब्रजभूषण शरण सिंह को फंसाया जा रहा है और यह कि यह कांग्रेस की साजिश है । लोग पहलवानों को गालियां तक देेते हुए कह रहे हैं कि ये पहलवान तो ऐसे बर्ताव कर रहे हैं कि जैसे इनसे पहले काई पहलवान ही नहीं हुआ और न कोई होगा। बडे अजीब-अजीब तर्क दिए जा रहे हैं।
यहां सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह है कि एक साधारण व्यक्ति पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है। मात्र ऐसे लोग ही नहीं जिनकी बेटियां हैं और जो उनकी सामाजिक सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं बल्कि वे भी जो कानून से बड़ा किसी को नहीं मानते और जिन्हें लगता है कि कानून से न्याय अवश्य मिलेगा, उन सभी पर इस प्रकरण का बहुत गहरा और नकारात्मक प्रभााव पड़ रहा है । संदेश यह जा रहा है कि जब इतनी ख्याती और पहुंच वाले पहलवान जिन्हें प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति सहित सारे दिग्गज जानते-पहचानते हैं उन्हें तक जब स्त्री के दैहिक शोषण के विरूद्ध लडाई में किसी का साथ नहीं मिल रहा है, उनकी लड़ाई कितनी कठिन होती जा रही है तब किसी और की तो बिसात ही क्या। यह निराशा स्त्री संघर्ष को और बढा सकती है, हो सकता है यह एक उदाहरण भी माना जाने लगे कि अरे जब इतने बडे-बडे पहलवानों को न्याय नही मिला तो हमें क्या मिलेगा और क्या यह भी नहीं हो सकता कि ब्रजभूषण शरण सिंह को अपना आदर्श मानने वाले लोगों की एक फौज ही बनती चली जाए जो इस बात से उत्साहित हों कि जब उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाया तो हमारा भी कुछ नहीं बिगडेगा। जब पहले ही स्त्री की सुरक्षा से जुड़ी बातों में दर्जनों विसंगतियां हैं और देश में चाहे जहां स्त्री की अस्मिता पर घात-प्रतिघात हो रहा है तब ऐसे घटनाक्रम उसकी कठिनाइयों को असीमित रूप से बढाएंगे ही। किसी तर्क से पहलवानों के संघर्ष को गलत नहीं ठहराया जा सकता ।
वैसे यह भी एक तर्क है कि वे सभी लोग जिन्हें लगता है कि यह गलत है वे इसे सिर्फ पहलवानों का ही मुद्दा क्यों मान रहे हैं? क्या यह नहीं हो सकता कि जैसे निर्भया कांड में राष्ट्रव्यापी स्वतःस्फूर्त विरोध हुआ था, लोग सारे देश में सड़कों पर उतर आए थे वैसे ही इस मामले में भी पहलवानों के समर्थन में पूरे देश में सामने आएं, सडकों पर उतरें और धरना-प्रदर्शन करें। हो तो सकता है लेकिन मीडिया इसकी गंभीरता को, इसके संदेश को जन-जन तक पहुंचाने की आवश्यकता अनुभव ही नहीं कर पा रहा है।
-धीरेन्द्र शुक्ल
सभी रिएक्शन:
Shyam Kumar Rai, K P Singh Saroha और 5 अन्य लोग

Tuesday, February 10, 2015

 सस्ती संगीत सेवा  

 वह प्रतिभाषाली लोगों का एक गिरोह था । उन सभी में एक ही प्रतिभा समान रूप से थी और वह यह कि वे अपने आपको असाधारण प्रतिभाषाली समझते थे। हमारे एक परिचित भी इसी गिरोह का हिस्सा थे जिसे वे सब म्यूजीकल ग्रुप कहते थे नाम था-मधुर म्यूजिकल ग्रुप। एक दिन इन्हीं परिचित ने आमंत्रित किया कि आज हमारे ग्रुप का प्रोग्राम है आप जरूर आइये। हम सपत्नीक पहुंचे,देखा तो हाल में घुसते ही उनकी प्रतिभा के दर्षन हो गए। सामान्य रूप से प्रवेषद्वार के आखिर में मंच होता है जिसकी ओर मुंह करके श्रोता बैठते हैं यानी प्रवेष द्वार की ओर उनकी पीठ होती है लेकिन यहां ऐसा नहीं था। यहां प्रवेष द्वार के ठीक बाजू से गायक झुंड लगाकर बैठे थे और साजिंदों पर उनकी घातक निगाह थी। गाने वाले अपने ढंग से गा रहे अपनी धुन मंे और बजाने वाले उनके पीछे भागते सुर पकडने की कोषिष कर रहे थे ऐसा समां बंधा था कि बस तू डाल-डाल मैं पांत-पांत हुआ जा रहा था। ऐसे संघर्षपूर्ण और रोमांचक दृष्य के भीतर हम किस तरह घुसें हमें समझ में नहीं आया,हम ठिठक गए,हमें लगा कि हमारे प्रवेष से वहां मौजूद श्रोताओं के मनोरंजन में बाधा पहुंच सकती है,लेकिन तभी हमारा संकोच तोडते हुए हमारे एक आदरणीय मित्र ने जोर से आवाज दी-आ जाओ-अंदर आ जाओ यार, बाहर क्या कर रहे हो? हम भीतर दाखिल हुए लेकिन हमने देखा कि इस सबसे जो गायक वहां गा रहे थे उनकी पकड में कोई फर्क नहीं आया बल्कि माइक पर उनकी पकड और बढ गई। थोडी देर बाद हमें पता चला कि हम और हमारे सम्माननीय मित्र के अलावा वहां एक भी श्रोता नहीं था जितने थे सब गायक ही थे और इस उम्मीद में वहां जमे थे कि देर -सबेर हमें भी मौका मिलेगा। कुछ देर बैठने के बाद एक बुजुर्ग ने माइक थामा, सबसे पहले उन्होंने देष में षास्त्रीय संगीत की उपेक्षा पर आंसू बहाए और फिर इसे दूर करने की कोषिष के तहत किसी राग विषेष की बारीकियों का जिक्र कर अनूप जलोटा द्वारा गाए गए कबीर के भजन-झीनी रे झीनी गाना षुरू किया अभी वे षुरू ही हुए थे कि गले में लटका उनका मोबाइल फोन भी बजना षुरू हो गया, हमें लगा कि षास्त्रीय संगीत के प्रति अपना समर्पण दिखा रहे ये बुजुर्ग गाना गाने में मगन हो जाएंगे लेकिन वे चदरिया झीनी झीनी छोडकर बीच में ही फोन पर मगन हो गए।हमारे मित्र ने कहा लगता है उसी चदरिया वाले का फोन है कह रहा होगा हमने तो बढिया दी थी भइया न झीनी थी न फटी खैर ३ण्ण्बात आगे बढी। एक ऐसे कलाकार वहंा खडे हुए जिनका खडे होना ही अपने आप में किसी कला से कम नहीं था,वे कहीं और होते तो लोगों को इस बात का विष्वास होना मुष्किल हो जाता कि वे किसी अस्पताल से भागकर नहीं आए बल्कि अपनी इच्छा से घूम-घाम रहे हैं। उनके आते ही उद्घोषक ने बताया कि अब वे कौन सा गाना गाएंगें। साजिंदों ने उस गाने की धुन बजाना षुरू की, गायक के हाथ में माइक था लेकिन उनकी आवाज ही नहीं निकल रही थी बजाने वाले बजा रहे थे और गायक भी पूरी हिम्मत से आवाज निकालने की कोषिष में लगा हुआ तभी हमने देखा गायक झूम-झूम कर गर्दन हिला रहा है,हम चैंके हमें आवाज नहीं आ रही थी लेकिन बजाने वाला भी झूम रहा था हमें हमें लगा जैसे गायक बजाने वाले के कान में फुसफुसा कर गा रहा है जब बजाने वालों ने बंद किया तब पता चला कि गाना हो भी चुका लेकिन इससे ज्यादा हैरत तब हुई जब सारे श्रोताओं ने तालियां भी बजाईं। झीनी झीनी चदरिया वाले गायक फिर आए और पूरे कार्यक्रम में उन्होंने पूरी कोषिष की कि उनके अलावा कोई और न गाने पाए और वे इसमें अस्सी फीसदी तक कामयाब भी रहे। एक और गायक आए जिनके बारे में बताया गया कि वे षहर के नामी दंत चिकित्सक हैं। डाॅक्टर साहब ने जिस धज के साथ माइक पकडा उससे मुझे उनके मारू इरादों की गंध आने लगी कि तभी उन्होंने मेरी बात सच साबित करते हुए बताया कि जो गाना वे गाने वाले हैं वह किस राग पर आधारित है और उसमें कौन सा सुर लगता है, मुझे तुरंत आकाषवाणी के रागमाला कार्यक्रम की याद आ गई यह कार्यक्रम मैने कई बार सुना था लेकिन कोई इसे इस तरह याद कर उसका उपयोग जानलेवा ढंग से भी कर सकता है यह नहीं सोचा था, लेकिन जो नहीं सोचा था वह देखा और सुना भी। डाॅक्टर साब ने आंख बंद की और लगा जैसे उनके दांतों में ही गजब की तकलीफ है जिसके कारण उनकी आवाज बल्कि आवाज क्या चीख निकल रही है। कई श्रोता ऐसे थे जो पूरी ताकत लगाकर गाना गाने के जुगत भिडा रहे थे और बार-बार चदरिया वाले दादाजी के पास जा रहे थे,लेकिन दादाजी गाना गवाने के मामले में एकदम त्यागी टाइप के थे उन्हें कोई भी अनुरोध व्यापतता नहीं था, वे एक कान से सुन कर उसी कान से ऐसी बातें बाहर कर रहे थे बाद में पता चला कि इस म्यूजिकल ग्रुप के मालिक वही हैं और उनका पूरा नाम है मधुर झुनझुनवाला। हमें एक और बात पर आष्चर्य हुआ कि जिन सज्जन का गाना सिर्फ बजाने वाला ही सुन रहा था वे एक बार फिर मंच पर अवतरित हुए लेकिन थोडी देर बाद वे गाना बीच में ही छोडकर झल्लाते हुए बैठ गए वे अपनी समझ में चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे कि कीबोर्ड प्लेयर ने जानबूझकर मेरा गाना बिगाडा, मैं सब जानता हूं ये किसकी साजिष है। आरोप गंभीर थे लेकिन कोई गंभीर नहीं हुआ सब इस चक्कर में थे कि कब मेरी बारी आए,इसी आपा-धापी में मेरे परिचित ने भी गाना गाया, गाना अच्छा था इसलिए वहां बैठे श्रोताओं उर्फ गायकों को बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा, खैर कार्यक्रम आखिर समाप्त हुआ। म्यूजिकल ग्रुप के मालिक मधुरजी ने सूचना दी कि यह कार्यक्रम हर माह की पहली तारीख को षहर के इसी हाल में आयोजित किया जाता है लेकिन अब मैं एक माह के लिए अमेरिका जा रहा हूं इसलिए अगले माह का प्रोग्राम रामभरोसे जी आयोजित करेंगे, रामभरोसे मेरे उन्हीं परिचित का नाम था जिनका जिक्र मैने अभी तक किया।
  अगले माह की पहली तारीख को रामभरोसेजी का फोन आया- बोले गुरू याद है न! आज वहीं आना है संगीत का कार्यक्रम है। संगीत की वजह से तो नहीं लेकिन जो कुछ हम वहां देख चुके थे उसका मजा हम छोडना नहीं चाहते थे इसलिए अपनी पत्नी के साथ हम फिर वहां जा पहुंचे। देखा इस बार बैठने की व्यवस्था वैसी ही थी जैसी होती है यानी मंच प्रवेषद्वार के सामने था और दर्षक उसी ओर मुंह किए बैठे थे मंच पर पीछे एक बैनर लगा था जिस पर नाम तो मधुर म्यूजिकल ग्रुप का ही था लेकिन उसके संचालक मधुरजी का नाम हटा दिया गया था, उनकी जगह पर रामभरोसेजी अपना नाम लिखवा चुके थे इसके अलावा उन लोगों का भी नाम था जिनका भरोसा रामभरोसेजी पर था। कार्यक्रम में कुछ और लोगों ने अच्छा गाया लेकिन जिन लोगों ने अच्छा गाया वे रामभरोसेजी का भरोसा खो बैठे और उन्होंने कार्यक्रम समाप्ति के बाद अपने नवगठित गिरोह को सूचना दी कि इन सभी को अपन अगले कार्यक्रम में नहीं बुलांएगें।
रामभरोसेजी की गाना गाने के अलावा दीगर प्रतिभाओं के बारे में मुझे कुछ भी नहीं पता था,हमारे अभिन्न मित्र वरुणजी रामभरोसेजी की गायन प्रतिभा के इतने कायल हो गए कि उन्हांेने ठान लिया कि उनके कार्यक्रम आयोजन में वे उनकी मदद भी करेंगे और खुद भी गाएंगे! एक दिन वरुणजी ने ही बताया कि रामभरोसे के यहां रियाज है,चलना,मैने कहा ठीक है, वहां जाकर देखा कि गाने-बजाने का पूरा इंतजाम तो था ही माइक और साउंड बाॅक्स भी लगे थे मैने कहा यार बडा बढिया इंतजाम करके रखा है तो रामभरोसेजी ने अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए बताया कि यह सब मधुर झुनझुनवाला का माल है और अब उसके हाथ में झुनझुना तक नहीं है। उन्होंने यह भी बताया कि अपन ने इसी माल से अपना म्यूजिकल ग्रुप षुरू कर दिया है जिसका नाम है राग और अगलेे हफ्ते राग म्यूजिकल ग्रुप का कार्यक्रम भी है जिसमें आपको आना है। हम पहुंचे। देखा रामभरोसेजी पांच-छह लोगों से एकांत में बात कर रहे थे कुछ देर बाद देखा इनमें से किसी ने पांच सौ किसी ने तीन,तो किसी ने दो सौ रुपए रामभरोसेजी को दिए। मैने वरुणजी से पूछा कि यह क्या था? उन्होंने बताया कि दरअसल रामभरोसेजी ने नए गायकों को मंच देने की ठानी है, हालांकि यह जरूरी नहीं कि गायक नया ही हो,पुराना भी हो सकता है मतलब यह है कि जिनको गाने की तलब लगी है वे यहंा आकर गा सकते हैं और इसके लिए उन्हें दो सौ रुपए प्रति गाने के हिसाब से रामभरोसेजी को भुगतान करना होगा। रामभरोसेजी अपने इसी फार्मूले पर चल कर अपनी तरह से संगीत की सेवा कर रहे थे कि राग म्यूजिकल ग्रुप के गठन से जुडे एक ऐसे कलाकार ने रामभरोसे जी का भरोसा तोड दिया जो गाना गाते वक्त गाने से ज्यादा रफी साहब की अदाएं काॅपी करने में डूबे रहते थे। पता चला कि उनके म्यूजिकल ग्रुप का नाम भी मधुर झुनझुनवाला से प्रेरित है लेकिन संगीत की सेवा करने का उनका रेट रामभरोसेजी से थोडा कम है, वे सौ रुपए प्रति गाने के हिसाब से संगीत की सेवा कर रहे हैं। यह भी पता चला है कि कुछ और म्यूजिकल ग्रुप की खरपतवार रामभरोसे जी के षेष बचे साथियों में से ही कुछ के मन में पनप रही है और वह कभी भी मन के दो बीघा से बाहर आकर किसी मंच पर दिखाई दे सकती है,फिलहाल महंगाई के इस दौर में   इतनी सस्ती दरांे पर संगीत की सेवा जारी है अभी रेट सौ रुपया प्रति गाना है हो सकता है आगे जाकर पचहत्तर रुपया या षायद पचास रुपया प्रति गाना भी हो जाए। देखिए आपके षहर में भी कोई न कोई मधुरजी या रामभरोसेजी जरूर होंगे।
धीरेंद्र षुक्ल

 


   

Tuesday, December 21, 2010

शहर से जुदाई

किसी शहर में रहना सिर्फ रहना नहीं होता, वहां की हर गली,रस्तों,चेहरों और दरख्तों से भी एक तरह का रिश्ता कायम हो जाता है। पिछले पांच माह से आगरा में था। वह आगरा जो हिंदुस्तान के महानतम शासक अकबर की राजधानी था, वह आगरा जिसे सारी दुनिया सिटी आफ ताज के नाम से जानती है और वह आगरा जिसकी माटी की गमक नजीर अकबराबादी की रचनाओं में मौजूद है। इस आगरा की इन खूबसूरत शक्लों के अलावा अब और भी बहुत से चेहरे हो गए हैं, जो इसकी नाजुक तासीर से मेल नहीं खाते। यह शायद मिस्त्र के बाद (हालांकि मिस्त्र देश है)दुनिया का एकमात्र शहर है जहां मुर्दे जिंदा लोगों को पाल रहे हैं। यानि यहां का पूरा पर्यटन उद्योग मकबरों पर निर्भर है। ताजमहल मकबरा ही तो है। फिर सिकंदरा स्थित अकबर महान का मकबरा,एतामाउद्दौला का मकबरा,मरियम का मकबरा...। यह बात शायद इस बात की गवाह है कि रिश्ते जिंदा रहते हैं। जिन्होंने इन मकबरों को बनाया उनका कोई बड़ा फलसफा रहा हो, यह जरूरी नहीं लेकिन उनकी व्याख्या उन्हें बड़ा बनाती है। अकबर का मकबरा मुझे खास तौर पर आकर्षित करता रहा है। आगरा में गुजारे इन पांच माहों के दौरान दर्जनों बार ऐसा हुआ है कि मैं रात को इसके विशाल परिसर में घंटों बैठा हूं। जब अकबर ने इस जगह का चुनाव किया तब यह जगह मुख्य शहर से इतनी दूर थी कि बाद दिनों में जहांगीर यहां शिकार करने आते थे। तबकी इतनी निर्जन,इतनी शांत और इतने घने जंगल वाली जगह में अब इतना शोर इतना सतहीपन और फूहड़पन भी है कि विस्मय मिश्रित दुख होता है कि इस देश में करीब आधी सदी तक राज करने वाले इस शासक को अब चैन की दो घड़ी भी मयस्सर नहीं हैंं। अकबर के मकबरे में मुझे फलसफा दिखाई देता है। सबसे पहले उसके विशाल और आकर्षक दरवाजे के ठीक बाहर बना छोटा सा दरवाजा। क्यों बनवाया यह दरवाजा? शायद इसलिए कि बादशाह,बादशाह ही होता है! कुछ लोग होते हैं जिनका मौत कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती। अकबर भी ऐसे ही शासक थे जिनकी कीर्ति के सामने मौत की ताकत अदनी मालूम पड़ती है। तो यह छोटा दरवाजा शायद इसलिए था कि जो भी यहां आए अदब से आए, सिर झुका कर आए। इसलिए विशाल बड़े दरवाजे के बाहर यह छोटा दरवाजा है। लेकिन इसकी एक और खासियत है जिस पर शायद बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया गया। वह है मुख्य प्रवेश द्वार के बाहर बने इस छोटे दरवाजे तक जाने वाली सीढ़ियां। ये दाएं ,बाएं और सामने से जाती हैं। इनका संबंध शायद अकबर के उस महान विचार से है कि ईश्वर एक है और उसे किसी भी रास्ते से पाया जा सकता है। हो सकता है आगरा में ये मेरी आखिरी रात हो। निदा फाजली ने कहा है-अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं, रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं। ये हवा आजीविका की हवा है, जिसमें हसरतें तिनके की तरह उड़ जाती हैं। ऐसा न होता तो जिस शहर में जिंदगी के सबसे खूबसूरत,दिलकश दिन गुजारे , उस मेहबूब शहर जबलपुर से दूर न होना पड़ता। पिछले साल इन्हीं दिनों भोपाल में था और वहां की ठंड पर एक पोस्ट लिखी थी, अगले साल कहां होंगे, कौन जानता है? लेकिन आगरा से जाना और जाने की बात सोचने पर भी एक टीस गहरा रही है। आभारी हूं इस शहर का, जाने अनजाने इसे कभी भला-बुरा कहा हो तो इसके लिए माफी मांगता हूं। अलविदा आगरा...

Wednesday, December 1, 2010

मोंटेक ने खोलीं नई राहें

पिछले दिनों दो बड़े प्रेरक और गदगद कर देने वाले बयान आए। आप मोंटेक सिंह अहलूवालिया को तो जानते ही हैं, उन्हीं ने बयान दिया, कहा कि हाल ही में जो रियल एस्टेट में घोटाला हुआ वह बड़ी छोटी चीज है, कोई बड़ा घोटाला नहीं है। मुझे सुनकर पहले बड़ी शर्म आई अपने अल्पज्ञान पर। धिक्कार है, मैने सोचा। कितना पिछड़ापन है, कहां खड़ा हूं मैं? मैं तो सोच रहा था कि यह बहुत भारी घोटाला है। करीब एक लाख करोड़ यदि ईमानदारी से नहीं बेईमानी से भी गरीबों पर खर्च किए जाएं तो उनकी हालत बदल सकती है। लेकिन अहलूवालिया ने मेरा दिमाग हिला दिया है। अब लग रहा है कि क्या औकात है एक लाख करोड़ की, कुछ भी तो नहीं। मुझे लगा कि अहलूवालिया देश के कथित महाघोटालेबाजों को ललकार रहे हैं कि चुल्लू भर पानी में डूब मरो! अरे अपनी हैसियत पहचानो । कई छोटे -मोटे घोटालेबाज, घूसखोर जो अपने आप को बड़ा तीस मार खां समझते थे, अहलूवालिया के बयान के बाद मुंह छुपाए घूम रहे हैं और कई लोग जो कई दिनों से अपनी पिछड़ी सोच के कारण छोटा-मोटा भ्रष्टाचार करने की जुगत बनाकर भी कर नहीं पा रहे थे, उन्हें प्रेरणा मिली है कि यदि कुछ करना है तो बड़ा करो। यहां मुझे एक पुस्तक का नाम याद आ रहा है-बड़ी सोच का बड़ा जादू। जब बड़ा सोचेंगे तभी बड़ा करेंगे। कलमाड़ी और आदर्श सोसायटी वालों ने अब एक नया मुहावरा दिया है कि जो कोई न सोच सके वह करो। इसी तर्ज पर एक ऐसी पुस्तक की जरूरत तत्काल है जिसका शीर्षक कुछ इस तरह हो- बड़े घपले का बड़ा जादू। इसके लेखक यदि कलमाड़ी हों तो यह बेस्ट सेलर बुक हो सकती है। वे न भी हों तो किसी मैनेजमेंट गुरु को इस तरफ ध्यान देना चाहिए, ऐसा मेरा प्रस्ताव है। मोंटेक सिंह का बयान ऐसा ही है जो बंजर जमीनों में यानि जिनमें घोटाले करने की क्षमता नहीं है,उन्हें भी उकसा सकता है,उकसा रहा है। सही मायने में मोंटेक सिंह ने देश के घपलेबाजों और घपलेबाज बनने की महत्वाकांक्षा पाले बैठे लोगों को एक चुनौती दी है। गुजरे जमाने में डाकू गांव वालों को चुनौती देते थे कि हम तुम्हें लूटने आएंगे, बचा सको तो बचा लो खुद को। अब डाकू चले गए, उनकी दबंगई चली गई, अब उनकी जगह नेता आ गए, और उनकी अपनी दबंगई भी। सही मायनों में मोंटेक के बयान में भी ऐसी ही दबंगई है कि यदि हिम्मत है तो बड़े घोटाले कर के दिखाओ। आज नेताओं की इसी तरह की दबंगई से कोई नहीं जीत सकता । जनता कहेगी कि इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई, इतने सारे लोग मर गए और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है,नैतिकता के आधार पर आपको इस्तीफा दे देना चाहिए, वे तत्काल कहेंगे कि यह गलत है कि यह बहुत बड़ी दुर्घटना है। इससे पहले भी बड़ी-बड़ी दुर्घटनाएं हुई हैं, उनमें इस दुर्घटना से ज्यादा लोग मारे गए थे। उस समय जो मंत्री थे उनने भी इस्तीफा नहीं दिया था,उनने राजनीति की नैतिकता का पालन किया था, हम भी उन्हीं की नैतिकता का पालन कर रहे हैं। हम भी इस्तीफा नहीं देंगे। जनता कह रही है कि इतने बड़े-बड़े घोटाले डंके की चोट पर किए जा रहे हैं, सरकार कुछ करती नहीं ? मंत्री कह रहा है कहां हुआ घोटाला? अरे ये भी कोई घोटाला है? वह आंकड़े बता रहा है कि कब कितना बड़ा घोटाला कहां हुआ था। देश में उसे बड़े आंकड़े नहीं मिल रहे तो वह दुनिया भर के आंकड़े बता रहा है। घोटालों पर अदभुत है उसका ज्ञान। इन्हीं के सहारे तो वह सारे खेल करता है। वह मानने राजी नहीं है कि जो कुछ अभी तक हो रहा है, हुआ है वह बहुत गलत है। वह कह रहा है कि यह राजनीति है। हमें और सरकार को बदनाम की साजिश है यह। यह साजिश कौन कर रहा है। वह कहता है विपक्ष। लेकिन घोटाले हुए हैं तभी तो विपक्ष कह रहा है। इसमें राजनीति कहां? वह नहीं मानता। मान लेगा तो नेता नहीं रह जाएगा। हमारे जैसा हो जाएगा जो हर बात को मानने के लिए ही तैयार बैठा रहता है। ुबहरहाल हम खुश हैं अहलूवालिया के बयान से । इससे देश के युवाओं के सामने नई राहें खुल गई हैं। उन्हें चाहिए कि वे मोंटेक सिंह की कसौटी पर खरे उतरें और जहां हैं, जैसे हैं वहीं से ऐसे-ऐसे घोटाले करें कि मोंटेक सिंह भी मान जाएं कि हां यह हुआ बड़ा घोटाला। लेकिन यह भी एक मजबूरी है कि इसके लिए भी बड़ी भारी योग्यता चाहिए। सरकारी आदमी ही ऐसे पराक्रम कर सकता है। ऐसे और इससे हजार गुना ज्यादा पराक्रम करने की सामर्थ्य होने के बावजूद बेरोजगारों को अहलूवालिया भी चांस नहीं देंगे। दूसरा बयान कांगे्रस का है, राष्टÑमंडल खेलों में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस का कहना है कि जेपीसी की मांग कर विपक्ष राजनीति कर रहा है। मै भी इससे पूरी तरह सहमत हूं। घोटालों का खेल कोई ऐसी चीज नहीं हैं जो जबान चला देने बस से हो जाए इसके लिए बड़े खेल करने पडते हैं, सब को साधना पड़ता है, और सबसे बड़ी बात यह कि इसे खेलने के लिए साहस नहीं दुस्साहस चाहिए, जो हर किसी के बस की बात नहीं है। कांग्रेस के इस बयान से यह स्पष्ट नहीं है कि वह राजनीति को किस रूप में ले रही है। राजनीति अपने आप में बहुत बड़ी भूल भुलैया है। बहुत बड़ा रहस्य है। यह अपने आप में कर्म भी है और फल भी। यदि आज कलमाड़ी ने 75 हजार करोड़ का घोटाला सिर्फ एक ही खेल में कर दिखाया है तो यह राजनीति की वजह से ही तो संभव हो पाया। यदि वे राजनीति में न होते तो मंत्री भी नहीं होते या शायद कुछ भी न होते, या होते तो चाहे जो होते पर इतना बड़ा काम करने लायक तो नहीं ही होते कि पूरा देश रह -रह कर कलमाड़ी-कलमाड़ी करता रहता। जब राजनीति इतनी ताकतवर, इतनी रक्षक है तो विपक्ष राजनीति कर रहा है, इसका क्या मतलब? क्या कांगे्रस यह कहना चाहती है कि विपक्ष भी कोई बड़ा घोटाला कर रही है? वैसे यदि वह यह भी कह रही है तो उसकी बात में दम है। क्योंकि किसीके बने-बनाए खेल को बिगाड़ना भी तो अपने आपमें बड़ा घोटाला ही है, फिलहाल यह घोटाला विपक्ष कर ही रहा है।

Sunday, November 21, 2010

टाइम की सूची पर जरूरी सवाल

टाइम पत्रिका ने पिछली सदी की सबसे ताकतवर महिलाओं की सूची जारी की है, इसमें सबसे अधिक समय तक किसी देश की प्रधानमंत्री होने का गौरव रखने वाली श्रीमती प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी नौ वें स्थान पर हैं। खास बात यह है कि अमेरिका की सेक्रेटरी आफ स्टेट और पूर्व अमेरिकी राष्टÑपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन को इंदिरा गांधी से तीन क्रम ऊपर रखा गया है, वे छठवें स्थान पर हैं। इसीलिए यह सूची काबिले गौर है और इससे कई सवाल उठते हैं। सबसे पहले सवाल तो यही उठता है कि हिलेरी क्लिंटन को किस आधार पर इंदिरा गांधी से तीन क्रम पहले जगह दी गई? इंदिरा गांधी के विराट व्यक्तित्व, उनकी राजनैतिक कुशाग्रता और वैश्विक स्वीकार्यता के सामने हिलेरी क्लिंटन की जगह कहां है? खुद पत्रिका ने इंदिरा गांधी को इस सूचि में शामिल किए जाने के लिए जिन बातों को आधार बनाया है वे भारत की इस अप्रतिम महिला नेत्री को श्रेष्ठ ही नहीं सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। इंदिरा जब भारत की प्रधानमंत्री बनीं तब इसी टाइम मैगजीन नेअपने कवर पेज पर उनकी तस्वीर छाप कर लिखा था- समस्याग्रस्त भारत की कमान एक महिला के हाथ में। भारत की समस्याएं तब ऐसी नहीं थीं कि उनका समाधान साल दो साल में हो जाता । यह हर तरफ से नाउम्मीदी के अंधेरे में छटपटाते भारत की ऐसी समस्याएं थीं जिनकी जड़ों में गहरी विसंगतियां और अभाव थे। तब जैसा भारत आज है वैसा ख्वाब देख पाना भी करीब-करीब नामुमकिन था, लेकिन इंदिरा गांधी ने इतने विपरीत हालातों में यह ख्वाब न सिर्फ देखा बल्कि उसे साकार करने के लिए एक रोड मैप भी तैयार किया। एक वक्त में जो जुनून आजादी के दीवानों में था, अपने देश को गौरव दिलाने का वही जुनून इंदिरा गांधी में था, उनके साथ जुड़े विवादों और मिथकों के बीच इस बात का आकलन शायद कभी नहीं किया गया। इसी जुनून के कारण वे लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के बीच बिना किसी विदेशी सहायता के पाकिस्तान के इरादों का मुंहतोड़ जवाब दे सकीं और अपनी असाधारण कूटनीतिक कुशलता का परिचय देकर बांग्लादेश का निर्माण भी करा सकीं। पूर्व अमेरिकी राष्टÑपति निक्सन के पीए ने अपनी पुस्तक में इस बात का जिक्र किया है कि निक्सन इंदिरा गांधी से डरते थे, इसलिए वे नहीं चाहते थे कि उन्हें इंदिरा गांधी का सामना करने पड़े। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इंदिरा अपने देश के गौरव के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं करती थीं, कभी भी। अमेरिका जैसे देश के प्रभुत्व को भी उन्होंने कभी उस तरह स्वीकार नहीं किया जैसा इतनी शक्तिशाली अर्थव्यवस्था के बाद भी आज भारत के नेता कर रहे हैं। अमेरिका की ही एक संस्था ने अपने सर्वे में इंदिरा गांधी को दुनिया की एकमात्र ऐसी महिला नेत्री कहा था जिसने नारीत्व की कमियों पर विजय हासिल कर ली थी। इसके अलावा यह रिकार्ड तो आज भी इंदिरा जी के नाम पर ही है कि दुनिया के किसी भी देश की सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री वही हैं। क्या ऐसी कोई उपलब्धि, ऐसी कोई विलक्षणता या ऐसी कोई वैश्विक स्वीकार्यता हिलेरी क्लिंटन की है? जाहिर है नहीं, तो फिर क्या सिर्फ इसीलिए हिलेरी को इस सूची में छठवें स्थान पर जगह दी गई है कि वे आज दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क की विदेश मंत्री हैं? तथ्य बताते हैं कि इस तरह की सूची या सूचियां इसी तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर बनाई जाती हैं। हाल ही में फोर्ब्स ने दुनिया की सबसे ताकतवर महिलाओं की जो सूची जारी की है उसमे ंभी अमेरिकी राष्टÑपति बराक ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा को सबसे पहला स्थान दिया गया है। यह सवाल लाजमी है कि असाधारण चुनौतियों का सामना कर इतिहास रच देने वाली इंदिरा नूयी या फिर विपरीत हालात में अपनी अलग छवि और जगह बनाने वाली सोनिया गांधाी के सामने मिशेल की कोई स्वतंत्र पहचान है? नहीं है, लेकिन इसके बावजूद जो उनके पास है वह किसी के पास नहीं, आखिर वे मिसेज ओबामा हैं। इस तरह की सूचियां अच्छी बात हो सकती हैं। जब इन्हें एक पूरे समय का मूल्यांकन करने की कसौटी माना जा रहा हो, तब यह बहुत जरूरी हो जाता है कि वे इस कदर निष्पक्ष हों कि उन पर गंभीर संदेह की गुंजाइश न रह जाए। टाइम की सूचि से पता चलता है कि उसमें इस प्राथमिक शर्त का सिरे से अभाव है।

Monday, November 15, 2010

नंगो का राज

हाल ही में किंगफिशर का नया कैलेंडर आया है। इसके जारी होने पर उन मॉडल्स का ग्रुप फोटो भी जारी हुआ जिन्होंने अपने शरीर की नुमाइश इसमें की है। इस फोटो में सभी मॉडल्स मुस्करा रही हैं। यह पहली बार नहीं है। हमेशा जब भी कोई मॉडल या फिल्म स्टार नग्न तस्वीरें खिंचवाती है,ऐसी ही मुस्कराती फोटो आती हंै, मैं हमेशा सोचता हूं कि मुस्कराने और नंगेपन का क्या संबंध है? यह सवाल भी परेशान करता है कि ये मॉडल्स किस पर मुस्कराती हैं? कई बार लगता है कि वे उन लोगों पर मुस्कराती हैं जो उनकी नग्नता पर लट्टू होते रहते हैं। कई बार यह शक भी होता है कि वे उन सभी लोगों पर मुस्कराती हैं जो कपड़े पहने -पहने ही पूरी जिंदगी गुजार देते हैं, जिनमें नंगे होने का साहस ही नहीं। ेऐसे साहसिक कामों के लिए ही उनका जन्म होता है,वे एक बार यह साहस करती हैं तो फिर ऐसे ही बल्कि इससे भी ज्यादा साहसिक काम करती चली जाती हैं। एक अनंत सिलसिला बन जाता है उनकी नग्नता और मुस्कराने का। हमारे देश में नंगे कम नहीं हैं। करीब-करीब आधी आबादी के पास तन ढंकने के लिए कपड़े नहीं है लेकिन उन्हें वह कला नहीं आती जो किंगफिशर के कैलेंडर वाली सुंदरियों को आती है। हमारे गरीब इसी बात का रोना रोते रहते हैं कि उनके पास तन ढकने के लिए कपड़े नहीं है। ये सुंदरियां कपड़े होने के बाद भी उन्हें घृणा की दृष्टि से देखती हैं। शायद यही गरीबी और अमीरी की परिभाषा है कि जो चाहकर भी न पहन सके वह गरीब और जो चाहकर ही न पहने वह अमीर! कहते हैं कि नंगे से खुदा भी डरता है? सवाल यह है कि किस तरह के नंगों से खुदा डरता है? जैसे नंगे हमारे गरीब हैं,उनसे खुदा डरता होता तो ये सब भी कब के अमीर हो गए होते। नहीं ..इनसे खुदा नहीं डरता। वह जरूर ऐसे ही नंगे लोगों से डरता होगा जो अकेले में नहीं सबके सामने नंगे होते हैं और नंगे होेकर मुस्कराने की कला भी जानते हैं। इन्हीं से डरता है खुदा, नहीं तो इन्हीं पर इतना मेहरबान क्यों होता? करोड़ों की दौलत इतनी सी बात पर यदि इनके कदम चूम रही है तो यह नंगपन असाधारण होगा ही। पर बात सिर्फ इतनी ही नहीं कि कोई भी कहदे कि हम नंगेहोने तैयार हैं और उसे नंगा होने का चांस दे दिया जाए। इसके लिए बाकायदा टेस्ट होेते हैं। ये टेस्ट शरीर से आत्मा तक की जांच करते हैं कि कहीं भीतर तो कोई कपड़ा या पर्दा वगैरह नहीं है। कड़ी परीक्षा के बाद जब यह तय हो जाता है कि नहीं यह भीतर -बाहर सब तरफ एक सा ही है तभी उसे मौका दिया जाता है। इस तरह के ‘वेल क्वालीफाइड’ नंगों की बड़ी भारी जमात इस देश में है। ये सुंदरियां तो इस वर्ग की नुमांइदगी बस करती हैं ताकि लोगों को इस बात का ध्यान बराबर बना रहे कि इस देश में उन लोगों की संख्या और ताकत बड़े पैमाने पर मौजूद है जिनसे खुदा डरता है। कौन हैं वे? यह सवाल उठना स्वाभाविक है। क्या उनके भी कैलेंडर निकलते हैं? अरे नहीं...नहीं..। यदि उनके भी कैलेंडर निकलने लगे तो जैसा शिवजी की स्तुति में कहा गया है कि सारी धरती को कागज बनाकर वृक्षों के माध्यम से समुद्र रूपी स्याही से लिखा जाए तो भी उनकी महिमा नहीं लिखी जा सकती, वैसी ही बात हो जाएगी। कितना लिखा जाए इन नंगों के बारे में ! हर कहीं, हर तरफ तो यही हैं। बस नाम लीजिए किसी क्षेत्र का हर कहीं वही वही मिलेंगे। नंगो का राज है ऐसे में यदि किंगफिशरी सुंदरियां मुस्करा रही हैं तो आश्चर्य क्या? धीरेंद्र शुक्ल