Search This Blog

muskan

muskan
muskan

Pages

Monday, November 15, 2010

ऐसे कैसे मिलेगी पंचायतों का ताकत?

उत्तर प्रदेश में त्रि स्तरीय पंचायत चुनावों के तहत पहले स्तर यानि पंचायत सदस्यों और ग्राम प्रधान के स्तर का चुनाव हो चुका है। अब बारी दूसरे और तीसरे स्तर की है। पंचायत चुनावों में जबर्दस्त हिंसा हुई और कई जगहों पर पनर्मतदान भी हुआ। अब ब्लॉक और जिला पंचायत के चुनावों के लिए भी हर तरह की बिसातें बिछ चुकी हैं। ब्लाक और जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव के लिए ग्राम प्रधानों को खरीदने के लिए उन्हें दस तोला सोना या आल्टो कार भी देने का पांसा फेंका जा रहा है। अब यह सब इतनी सहजता से होने लगा है कि आम आदमी को इसमें कुछ भी गलत दिखाई नहीं देता। लेकिन एक बात जो हर किसी को साफ दिखाई देती है पर जान-बूझकर जिसे अनदेखा कर दिया जाता है, वह है इन चुनावों में महिलाओं की स्थिति या सही मायने में उनका ‘दुरुपयोग’। पंचायतें सदियों से विकास और सुलभ न्याय की स्थानीय व्यवस्था के रूप में स्थापित रही हैं। इनके साथ लोगों का जुड़ाव इतना आत्मीय था कि वे एक जमाने में इसके प्रमुख यानि सरपंच या मुखिया को भगवान का रूप मानते थे। प्रेमचंद की कहानी‘पंच परमेश्वर ’ इसी भाव के लोक मान्यता में स्थापित होने की कहानी है। तमाम तरह के परिवर्र्तनों के बावजूद यह व्यवस्था अपने मूल स्वरूप में कायम रही। आजादी के बाद जब सभी क्षेत्रों में लूट मची और जनप्रतिनिधयों की एक बड़ी जमात ने जहां हैं, जैसे हैं , वहीं जितना लूट सको लूट लो, को अपना आदर्श बना लिया, तब पंचायती व्यवस्था में भी विकृतियां आनी शुरू हो गर्इं। इसके बावजूद यह ग्राम्य जनता के बीच संवाद स्थापित करने,छोटे-मोटे झगड़े सुलझाने और उनके सुख-दुख में कहीं न कहीं कोई भूमिका निभाने वाली इकाई बराबर बना रही। जो विकृतियां आ गर्इं थीं वे धीरे-धीरे बढ़ती गर्इं। जाहिर है ये यूं ही नहीं बढ़ रहीं थीं, इन्हें बड़ी कोशिशों से बढ़ाया जा रहा था। जिन्हें इनसे लाभ था वे इनके सहारे बड़ा खेल खेलने की युक्ति बैठा चुके थे। तब महिला सशक्तीकरण की इतनी बातें नहीं थीं, इसलिए पंचायतों में वे ही महिलाएं चुनकर आती थीं जिनका वाकई राजनीति में दखल होता था। भले ही उनकी संख्या कम रही हो लेकिन वे स्थानीय राजनीति में इतनी दखल रखती थीं कि बिना किसी पुरुष की सहायता के अपना काम बड़ी कुशलता से कर सकें। लेकिन इस पंचायत चुनाव मे जहां कहीं भी पंचायत चुनावों में महिलाएं लड़ीं उसका नजारा उनकी हालत को बयां करने के लिए काफी है। इन चुनावों में ऐसी एक भी महिला नहीं थी जिसने अपने चुनाव प्रचार के दौरान सिर्फ अपने नाम का इस्तेमाल किया हो, अनिवार्यत:उसके नाम के साथ उसके पति का नाम भी जुड़ा हुआ था। बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी, इसके दस कदम आगे ये महिलाएं घूंघट में ही प्रचार करती देखीं गर्इं, प्रचार का सारा जिम्मा भी स्वाभाविक रूप से उनके पतियों ने ही संभाल रखा था। बात सिर्फ इसी बार की नहीं हैं जबसे पंचायती राज नए शक्ल में आया है और महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू हुई है,यही हालत है। यह सभी का अनुभव है कि चुनावों के इस नजारे का वास्तविक अर्थ इन महिला प्रत्याशियों के जीतने के बाद सामने आता है। तब यह देखा जा सकता है कि इनके नाम पर न सिर्फ उनका पति, बल्कि पूरा परिवार ही सारा काम-काज संभालता है। यहां इस निर्वाचित महिला की स्थिति कुछ भी नहीं होती, उसके विचार या उसकी सहमति-असहमति यहां कोई मायने नहीं रखतीं, जो कुछ उसके परिजन करना चाहते हैं वह डंके की चोट पर करते हैं। इस सबके बारे में काई ऐसी व्यवस्था भी नहीं है जो महिला के इस तरह इस्तेमाल पर रोक लगा सके। गांवों में तो कोई इतना साहस कर ही नहीं सकता कि यदि किसी मामले में महिला प्रमुख के पति ने अपनी सहमति जता दी हो तो वह यह कहे कि नहीं मुझे मुखिया से मिलना है। हालांकि मिलने से भी होगा तो कुछ नहीं पर अपनी तसल्ली के लिए भी वह ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि जिसके नाम पर उसके परिजनों ने वोट मांगे थे वे उसे ग्राम पंचायत प्रमुख नहीं, सिर्फ एक औरत मानते हैं जो उनकी घर की इज्जत है और उससे कोई दूसरा मर्द नहीं मिल सकता। यह अलग बात है कि इसी‘ इज्जत’ के नाम पर और उसे हजारों लोगों के बीच घुमा-घुमा कर वोट मांगते वक्त उन्हें कोई असहजता या असुविधा महसूस नहीं होती और ‘घर की इज्जत ’ जैसी बात भी दिखाई नहीं देती। यहां कई सवाल एक साथ उठते हंै। पहला यह कि ग्राम पंचायतों में महिलाओं को प्राप्त अधिकारों को इस कदर इस्तेमाल किया जाना क्या सरासर धोखाधड़ी नहीं है? उन मतदाताओं के साथ, जिन्होंने उसे चुना और उस मंशा का यह खुला मजाक नहीं है जो महिला को ‘अबला से सबला’ होते देखना चाहती है। इस खुल्लमखुल्ला धांधली को रोकने समाजशास्त्रियों का ध्यान इस ओर क्यों नहीं जाता?जो कानून है उसे अमल में लाने की सार्र्थक कोशिश क्यों नहीं की जाती? क्या ऐसी कोई व्यवस्था कायम होने की दिशा में छोटी ही सही, शुरुआत नहीं हो सकती कि महिलाओं के लिए आरक्षण का लाभ सिर्फ उन्हीं को मिले? दरअसल यह ऐसा नाजुक और पेचीदा सामाजिक मामला है जिसकी जड़ें हमारे सामाजिक ताने-बाने में मौजूद हैं। अशिक्षा भी इसका एक बड़ा कारण है, और फिर राजनीति तो है ही । लालू प्रसाद यादव को जब चारा घोटाले में जेल हुई तो उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया था। राबड़ी की स्थिति तब अनुभवहीन और नौसिखिया महिला की ही थी लेकिन लालू ने सिर्फ अपने और अपने पिछलग्गुओं के दम पर ऐसा कर दिखाया। जब वे बाहर आए तो उन्होंने भी राबड़ी के नाम पर खुलकर सरकार चलाई और सारा देश देखता रहा। विश्लेषण करते जाएं तो यह लगने लगता है कि महिलाओं की आड़ में राजनीति करने के संस्कार गांव के छोटे खिलाड़ियों ने लालू सरीखे बड़े खिलाड़ियों और उनके शहरी मानस पुत्रों से ही ग्रहण किए हैं। शहरों में महापौर और जिला पंचायत से लेकर सांसदों तक के चुनाव में यही स्थिति देखी जा सकती है। यहां भी महिलाएं सिर्फ मोहरा होती हैं, चाल तो उनके पति ही चलते हंै। इस स्थिति में यह शक भी निराधार नहीं लगता कि यदि राजनीति में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण का विधेयक पास हो भी जाता है तो उसका यही हश्र हो सकता है। कई बातें हैं जो आपस में गुंथी हुई हैं, लेकिन जरूरी है कि उनका कोई सिरा पकड़कर इन्हें सुलझाने की दिशा में कोई ऐसी कोशिश की जाए जिसके परिणाम भी दिखाई देने लगें। इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ग्राम ंपंचायत हो या शहरों में पार्षद का चुनाव लड़ती महिलाएं, सभी के लिए यह शिक्षा को लेकर भले ही बंदिशें न हों पर यह जरूरी कर दिया जाए कि वही महिलाएं इन चुनावों में प्रत्याशी हो सकेंगी जिन्हें सामाजिक जीवन में सक्रियता का अनुभव हो। प्रायमरी कक्षाओं में पढ़ाने के लिए आवेदन देने वाली महिलाओं से भी यह अपेक्षा की जाती है कि उन्हें पढ़ाने का अनुभव होना चाहिए, तो फिर इस मामले में ऐसी किसी बात को व्यवहार में लाने की बात करना और इस दिशा में पहल करना भी अव्यावहारिक नहीं माना जा सकता। यह भी तय है कि ऐसी किसी भी कोशिश का शुरू में विरोध भी जमकर होगा और बाद में इसका ‘तोड़’ निकालने की कोशिशें की जाएंगी। लेकिन इन सबके बाद भी ऐसी कोशिशें नई पहल हो सकती हैं और संभव है कि वे सार्थक भी हों।

No comments:

Post a Comment